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________________ सप्ततिका विशेषार्थ-मिथ्यात्वगुणस्थानमें मोहकर्मकी उदय होनेके योग्य सभी प्रकृतियोंके उदय होनेपर दशप्रकृतिक उदयस्थान होता है। भय या जुगुप्साके विना नौप्रकृतिक उदयस्थान भी होता है और दोनोंके विना आठप्रकृतिक उदयस्थान भी होता है। तथा अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना करके नीचे गिरे हुए जीवके मिथ्यात्वमें आनेपर एक आवली कालतक मिथ्यात्वका उदय सम्भव नहीं है, अतएव उसके नौ, आठ और सातप्रकृतिक ये तीन उदयस्थान होते हैं। इसी प्रकार सासादनमें नौ, आठ-आठ और सातप्रकृतिक उदयस्थान होते हैं । मिश्रमें नौ, आठ और सातप्रकृतिक उदयस्थान होते हैं। असंयत गणस्थानमें वेदकसम्यग्दृष्टिके नौ, आठआठ और सातप्रकृतिक उदयस्थान होते हैं। तथा शेष सम्यग्दृष्टियोंके आठ, सात-सात और छहप्रकृतिक उदयस्थान होने हैं । देशविरतमें वेदकसम्यग्दृष्टिके आठ, सात-सात और छहप्रकृतिक उदयस्थान होते हैं; तथा शेष सम्यग्दृष्टियोंके सात, छह-छह और पाँचप्रकृतिक उदयस्थान होते हैं । प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयतमें वेदकसम्यग्दृष्टिके सात, छह-छह और पाँचप्रकृतिक उदयस्थान होते हैं; तथा शेष सम्यग्दृष्टियोंके छह, पाँच-पाँच और चारप्रकृतिक उदयस्थान होते हैं । अपूर्वकरणमें वेदकप्रकृतिका उदय नहीं होता है, इसलिए वहॉपर छह, पाँच-पाँच और चारप्रकृतिक एक विकल्परूप ही उदयस्थान होते हैं। इसी प्रकार अनिवृत्तिकरणमें दो और एकप्रकृतिक दो और सूक्ष्मसाम्परायमें एकप्रकृतिक एक उदयस्थान होते हैं। इन सब उदयस्थानोंकी संदृष्टियाँ मूलमें दी हुई हैं। अब मूलसप्ततिकाकार इसी अर्थका निरूपण करते हैं[मूलगा०३८] 'सत्तादि दस दु मिच्छे सासादण मिस्से सत्तादि णवुक्कस्सं । छादी अविरदसम्मे देसे पंचादि अट्ठव ॥३०६॥ [मूलगा०३६] विरए खओवसमिए चउरादि सत्त उक्कस्सं छ णियट्टिम्हि । अणियट्टिबायरे पुण एक्को वा दो व उदयंसा ॥३१०॥ [मूलगा०४०] एगं सुहुमसरागो वेदेदि अवेदया भवे सेसा । भंगाणं च पमाणं पुव्वुद्दिद्रुण णायव्यं ॥३११॥ मिथ्यादृष्टयादि-सूचमसाम्परायान्तं मोहोदयप्रकृतिस्थानसंख्या कथ्यते-मिथ्यादृष्टौ सप्तादि-दशोत्कृष्टान्ताः १०1।८।७। उदयप्रकृतिस्थानविकल्पा अष्टौ ८ । सासादने मिश्रे च सप्तादि-नवोत्कृष्टान्ता मोहप्रकृत्युदयस्थानविकल्पाः ९।८।७।। अविरतसम्यग्दृष्टौ पडादि-नवोत्कृष्टान्ताः ।।७।६ । देशसंयते पञ्चाद्यष्टान्ता ८1७।६।५। विरते प्रमत्त अप्रमत्त च क्षयोपशमसम्यक्त्वे वेदकसम्यक्त्वे सति चतुरादिसप्तोत्कृष्टान्ता मोहप्रकृतिस्थानविकल्पाः ७।६।५।४ । अपूर्वकरणे चतुरादि-षट् पर्यन्ताः ६।५।४। अनिवृत्तिकरणे द्वयोः प्रकृत्योरुदयः २ स्थूललोभप्रकृतेरुदये वा १ । एकं सूचमलोभं सूचभसाम्परायो मुनिर्वेदयति उदयमनुभवति । अनिवृत्तिकरणस्य सवेदस्य प्रथमे भागे त्रिवेद-चतुःसंज्वलनानामेकैकोदयसम्भवं द्विप्रकृत्युदयसम्भवं द्विप्रकृत्युदयस्थानं २ स्यात् । परेषु चतुषु भागेषु यथासम्भवमवेदकपायाणामेकतमः १ । इत्यनिवृत्तौ २ सूचमे १। शेषाः अपूर्वकरणस्य द्वितीयभागादिसूचमसाम्परायान्ता: अवेदका वेदोदयरहिता भवन्ति । भङ्गानां विकल्पानां प्रमाणं पूर्वोद्दिष्टेन पूर्वकथितेन ज्ञातव्यम् ॥३०९-३११॥ ___1. सं० पञ्चसं० ३३८-३४१ । १. सप्ततिका० ४३ । २. सप्ततिका० ४४ । ३. सप्ततिका० ४५ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001937
Book TitlePanchsangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages872
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size21 MB
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