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________________ ४४२ पञ्चसंग्रह मिथ्यात्वगुणस्थानमें सातको आदि लेकर दश तकके चार उदयस्थान होते हैं। सासादन और मिश्रमें सातसे लेकर नौ तकके तीन उदयस्थान होते हैं। अविरतसम्यक्त्वमें छहसे लेकर नौ तकके चार उदयस्थान होते हैं। देशविरतमें पाँचसे लेकर आठ तकके चार उदयस्थान होते हैं। क्षायोपशमिकसम्यक्त्वी प्रमत्त और अप्रमत्तविरतके चारसे लेकर सात तकके चार उदयस्थान होते हैं । अपूर्वकरणमें चारसे लेकर छह तकके तीन उदयस्थान होते हैं। अनिवृत्तिबादरसाम्परायमें दो और एकप्रकृतिक दो उदयस्थान होते हैं। सूक्ष्मसाम्पराय एकप्रकृतिक स्थानका ही वेदन करता है । शेष उपरिम गुणस्थानवर्ती जीव मोहकर्मके अवेदक होते हैं। इन उदयस्थानोंके भङ्गोंका प्रमाण पूर्वोद्दिष्ट क्रमसे जानना चाहिए ॥३०६-३११॥ ___ अब मूलसप्ततिकाकार मिथ्यात्व आदिगुणस्थानों की अपेक्षा दशसे लेकर एकप्रकृतिक उदयस्थानोंके भङ्गोका निरूपण करते हैं[मूलगा०४१] एक य छक्केगारं एगारेगारसेव णव तिण्णि । एदे चउवीसगदा वारस दुग पंच एगम्मि ॥३१२॥ ५२ । गु २४॥३५२ । गु २४ सर्वगुणस्थानेषु मिलित्वा दशकं स्थानमेकं नवकानि स्थानानि षट ६ अष्टकानि स्थानानि एकादश ११ सप्तकानि प्रकृतिस्थानान्येकादश ११ षटकानि स्थानान्येकादश ११ पञ्चकानिस्थानानि नव है चतुष्कानि स्थानानि वीणि ३ एतानि समुच्चयीकृतानि मोहप्रकृतिस्थानानि द्वापञ्चाशत् ५२ । क्रोधादयश्चत्वारः ४ वेदास्त्रयः ३ हास्यादियुगलं २ परस्परेण गुणिताश्चतुर्विशतिः २४ । तैर्गुणिता द्वापञ्चाशत् ५२ । अष्टचत्वारिंशदधिकद्वादशशतसंख्योपेतः १२४८ मिथ्यादृष्टयाद्यपूर्वकरणान्तेषु प्रकृत्युदयस्थानविकल्पा भवन्ति । सवेदे अनिवृत्तौ भङ्गाः १२ अवेदे ४ सूचमे १ सर्वे मीलिताः १२६५। एते मोहप्रकृत्युदयस्थानविकल्पाः स्युः भवन्ति । मोहप्रकृत्युदयस्थानानि १।६।११११।११।३। स्वस्वप्रकृतिसंख्याभिर्गुणितानि १०५४१८८७७।६६।४५।१२। एते मीलिताः ३५२ । एते चतुर्विशत्या २४ गुणिताः ८४४८ । तथा द्वादश द्विगुणिताः २४ । एकसंख्याकाः ५ मीलिताः ८४७७ एते पदबन्धा उदयप्रकृतिविकल्पा भवन्ति ॥३१२॥ दशप्रकृतिक उदयस्थान एक है, नौप्रकृतिक उदयस्थान छह है, आठ, सात और छहप्रकृतिक उदयस्थान ग्यारह-ग्यारह हैं, पाँचप्रकृतिक उदयस्थान नौ हैं, चारप्रकृतिक उदयस्थान तीन हैं। इन सबको चौबीससे गुणा करनेपर उन-उन उदयस्थानोंके भङ्गोंका प्रमाण आ जाता है। दोप्रकृतिक उदयस्थानके बारह भङ्ग हैं और एकप्रकृतिक उदयस्थानमें पाँच भङ्ग होते है ॥३१२॥ विशेषार्थ-दशसे लेकर चार तकके उदयस्थानोंके विकल्प क्रमशः इस प्रकार हैं१, ६, ११, ११, ११, ६, ३। इन्हें जोड़ देनेपर ५२ विकल्प होते हैं। इन्हें अपनी-अपनी प्रकृतियों की संख्यासे गुणा करनेपर ३५२ उदयस्थान-विकल्प हो जाते हैं। इन एक-एक उदयस्थानोंमें चार कपाय, तीन वेद और हास्यादियुगलके परस्परमें गुणा करनेपर चौबीस भङ्ग होते हैं। उदयस्थान विकल्पोंको चौबीससे गुणा करनेपर सर्व भङ्गोंका प्रमाण आ जाता है। कहनेका भाव यह है कि उक्त ५२ विकल्पोंको २४ से गुणा करनेपर १२४८ प्रमाण आता है। उसमें द्विकप्रकृतिक उदयस्थानके १२ एबं एकप्रकृतिक स्थानके ५ और जोड़नेपर १२६५ उदयस्थानसम्बन्धी विकल्प होते हैं। तथा ३५२ उदयस्थानोंको २४ से गुणित करनेपर ८४४८ होते हैं। १. सप्ततिका० ४६ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001937
Book TitlePanchsangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages872
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size21 MB
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