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________________ २८ पञ्चसंग्रह __ अर्थात ज्ञानावरण आदि प्रकृतियोंके समान आहारकशरीर और आहारकअंगोपांगकी जघन्य स्थिति अन्तमुहूर्त होती है। चन्द्रषिके इस कथनपर आपत्ति करते हुए मलयगिरि लिखते हैं-"अत्राप्याहारकद्विकस्य जघन्या स्थितिरन्तमुहूर्तप्रमाणोक्ता मतान्तरेण, अन्यथा सान्तःसागरोपमकोटीकोटीप्रमाणा द्रष्टव्या, कर्मप्रकृत्यादिषु तथाभिधानात् ।” यतः मलयगिरि कर्मप्रकृतिके भी टीकाकार हैं और अन्य कर्मग्रन्थकारोंके मतोंसे भी परिचित हैं। अतः मूल पञ्चसंग्रहकारके मतके विरुद्ध होते हुए भी 'मतान्तरेण' कहकर उनकी रक्षाका प्रयत्न कर रहे हैं । जब कि मूलमें मतान्तरका कोई संकेत नहीं है। ३-निद्रादिपञ्चककी जघन्य स्थिति भी श्वे० पञ्चसंग्रहकारने पूर्ववर्ती कार्मिक ग्रन्थोंसे भिन्न ही बतलाई है। यथा "सेसाणुक्कोसायो मिच्छत्तठिइए जं लद्धं ।' (५, ४८) इसको वे स्वयं व्याख्या करते हैं शेषाणां शेषप्रकृतीनामुत्कृष्टस्थितिबन्धात् मिथ्यात्वोत्कृष्टस्थित्या यल्लब्धं सा जघन्या स्थितिरिति । एवं च निद्रापञ्चके त्रयः सप्त भागाः ७।३-इत्यादि। (श्वे० पञ्चसंग्रह पृ० २२६।१) इस कथनपर आपत्ति करते हुए मलयगिरि कहते हैं इदं च किल निद्रापञ्चकादारम्य सर्वासां प्रकृतीनां जघन्यस्थितिपरिमाणमाचार्येण मतान्तरमधिकृत्योक्तमवसेयं, कर्मप्रकृत्यादावन्यथा तस्याभिधानात् । कर्मप्रकृतौ तु वग्गुक्कोस ठिईणं मिच्छत्तक्कोसगेण लहूं । सेसाणं तु जहन्नो पल्लासंखेजगेणूणो ॥ सागरोपमस्य त्रयः सप्तभागाः, ते पल्यासंख्येयभागहीना निद्रापञ्चकासातवेदनीययोजघन्या स्थितिः। ४--द्वीन्द्रियादि जीवोंकी उत्कृष्ट स्थितिके विषयमें श्वे० पञ्चसंग्रहकार कर्मप्रकृति आदिकी पुरानी मान्यतासे विरुद्ध निरूपण करते हैं पणवीसा पन्नासा सय दससयताडिया इगिदिठिई । विगलासपणीण कमा जायइ जेट्ठोव इयरा वा ॥ (४, ५५) अर्थात् एकेन्द्रियोंके जघन्य या उत्कृष्ट स्थितिबन्धको २५,५०,१०० और १००० से गुणित करनेपर क्रमशः द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय जीवोंका जघन्य और उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होता है। पर उसकी यह मान्यता पुरातन कार्मिकोंके विरुद्ध है। इसलिए मलयगिरिको भी उक्त गाथाका अर्थ करते हुए लिखना पड़ा कर्मप्रकृतिकारादयः पुनरेवमाह:-एकेन्द्रियाणामुत्कृष्टः स्थितिबन्धः पञ्चविंशत्या गुणितो द्वीन्द्रियाणामुत्कृष्टः स्थितिबन्धो भवति । पञ्चशता गुणितस्त्रीन्द्रियाणामुत्कृष्टः स्थितिबन्धः, शतेन गुणितश्चतुरिन्द्रियाणां, सहस्रण गुणितोऽसंज्ञिपञ्चेन्द्रियाणाम् । एष एवानन्तरोक्तद्वीन्द्रियादीनामात्मीय-आत्मीय उत्कृष्टस्थितिबन्धः पत्योपमसंख्येयभागहीनो जघन्यः स्थितिबन्धो वेदितव्य इति । तत्वं पुनरतिशयज्ञानिनो विदन्ति ।" (पृष्ठ २३१२) ५---श्वे० पञ्चसंग्रहके चतुर्थ द्वारकी १८वीं गाथाको स्वोपज्ञवृत्तिमें चतुरिन्द्रियादि-जोवोंके बन्ध-हेतओंका प्रतिपादन करते हुए चन्द्रपिने तीनों वेद बतलाये हैं। किन्तु यह बात कर्मप्रकृति एवं दि० कर्मग्रन्थोंके विरुद्ध है । अतः मलयगिरि इस सम्बन्धमें लिखते हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001937
Book TitlePanchsangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages872
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size21 MB
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