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________________ ३५६ पश्चसंग्रह 'आयात्रुज्जोवुदये इगि-चउवीसं तहेव गवरिं तु । अवणिय साहारणयं सुहुममपज्जत्तभंगाओ ॥१८॥ एत्थ सुहुम-अपजत्तूणा २१ । साहारणं विणा २४ । एत्थ दो भंगा २ पुणरुत्ता। आतपोद्योतोदयकेन्द्रियेषु तथैव पूर्वोक्तमेवैकशितिकं २१ चतुविंशतिक २४ च भवति । नवीनं किञ्चिद्विशेषः, किन्तु भङ्गात् एकविंशतिकाच्चतुर्विशतिकाञ्च साधारणं सूक्ष्मं अपर्याप्तं च अपनीय वर्जयित्वा ॥११॥ अत्र सूचमाऽपर्याप्तरहितं बादरपर्याप्तसहितं चैकविंशतिकं स्थानं २१ साधारणरहितं प्रत्येकसहितं चतुर्विशतिकस्थानं २४ आतपोद्योतोदयभागिनां एकेन्द्रियाणां सूक्ष्मापर्याप्तसाधारणशरीरोदयाभावात् । यशोयुग्मस्यैकतरभङ्गो द्वौ द्वौ पुनरुक्तौ २।२। आतप और उद्योतके उदयवाले एकेन्द्रियजीवोंके तथैव पूर्वोक्त इक्कीसप्रकृतिक और चौबीसप्रकृतिक उदयस्थान होते हैं। विशेष बात केवल यह है कि उनमें से साधारण, सूक्ष्म और अपर्याप्त-सम्बन्धी भंगोंको निकाल देना चाहिए ॥११८॥ यहाँ पर सूक्ष्म और अपर्याप्त ये दो प्रकृतियाँ उदययोग्य नहीं मानी जानेसे इक्कीस प्रकृतिक उदयस्थान इन दोको छोड़कर होता है और चौबीसप्रकृतिक उदयस्थान साधारणको भी छोड़कर केवल प्रत्येकके साथ होता है । यहाँ आतप और उद्योत प्रकृतिका उदय होनेवालोंमें सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारणशरीर इन तीनका उदय नहीं रहता, अतएव भंग अधिक होनेका कारण केवल एक यशस्कीतियुगल है। इसके द्वारा इक्कीसप्रकृतिकस्थानमें भी दो भंग होते हैं और चौबीसप्रकृतिकस्थानमें भी दो भंग होते हैं। किन्तु ये भंग पहले कहे जा चुके हैं, अतः पुनरुक्त हैं। "एमेव य छव्वीसं सरीरपजत्तयस्स जीवस्स ! परघायुज्जोयाणं इक्कयरं चेव चउ भंगा ॥११६।। २६ । भंगा ४ । शरीरपर्याप्तियुक्तस्यैकेन्द्रियजीवस्य पूर्वोक्तमेव षड्विंशतिकं परघातः १ आतपोद्योतयोमध्ये एकतरो. दयः १ तत्र चतुर्भङ्गाः ४ । अन्तर्मुहूर्तकालश्च । कथं तत् षड्विंशतिकम् ? तिर्यग्गतिः १ तेजस-कानणद्वयं २ अगुरुलघुकं १ वर्णचतुष्कं ४ यशोयुग्मस्यैकतरं १ बादरं १ पर्याप्तं १ निर्माणं १ स्थिरास्थिरयुग्मं २ शुभाशुभद्वयं २ दुर्भगं १ अनादेयं १ स्थावरं १ एकेन्द्रियं १ औदारिकशरीरं । हुण्डकं १ उपघातः १ प्रत्येकशरीरं १ परघातः । आतपोद्योतयोरेकतरोदयः । एवं षड्विंशतिक २६ शरीरपर्याप्तिप्राप्तस्यैकेन्द्रियस्योदयस्थानं भवति ॥११६॥ इसी प्रकार शरीरपर्याप्तिसे युक्त एकेन्द्रियजीवके परघात और आतप-उद्योत इन दोमेंसे किसी एकके मिलानेपर छब्बीसप्रकृतिक उदयस्थान होता है। और इस स्थानके चार भंग होते हैं ॥११॥ छब्बीसप्रकृतिक स्थानमें यशःकीर्तियुगल और आतप-उद्योत युगलके परस्पर गुणा करनेसे चार भंग हो जाते हैं। एयमेव सत्तवीसं आणापज्जत्तयस्स उस्सासं। पक्खित्ते चउभंगा सव्वे भंगा य बत्तीसा ॥१२०॥ २७ । भंगा ४ । एवमे इंदियसव्वभंगा ३२ । 1. सं० पञ्चसं० ५, १३८ । 2. ५, १३९ । 3. ५, १४० । द 'बत्तीसा होंति सब्वे वि' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001937
Book TitlePanchsangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages872
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size21 MB
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