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________________ २७६ पत्रसंग्रह ताः कथम्भूताः१ घातिकानां प्रतिभागाः घातिकर्मोक्तप्रतिभागाः भवन्ति, त्रिविधशक्तयो भवन्तीत्यर्थः। ता अघातिप्रकृतयः १०१। एवं पुण्यप्रकृतयः पापप्रकृतयश्च भवन्ति । शेषघातिप्रकृतयः सर्वाः ४७ पापरूपाः पापान्येवेति मन्तव्यम् ॥४८५॥ घातीनि ४७ अघातीनि १०१ भीलिताः १४८ । उपर्युक्त सर्वघाती और देशघातीके सिवाय अवशिष्ट जितनी भी चार कर्मोकी १०१ प्रकृतियाँ हैं, उन्हें अघातिया जानना चाहिए। वे स्वयं तो आत्मगुणोंके घातनेमें असमर्थ हैं, किन्तु घातिया प्रकृतियोंकी प्रतिभागी हैं। अर्थात् उनके सहयोगसे आत्मगुण घातने में समर्थ होती हैं । इन १०१ अघातिया प्रकृतियोंमें ही पुण्य और पापरूप विभाग है। शेष ४७ प्रकृतियोंको तो पापरूप ही जानना चाहिए ।।४८५॥ - घातिया ४७ अघातिया १०१ =१४८। अब स्थानरूप अनुभागबन्धका निरूपण करते हैं[मूलगा०८१ ]'आवरण देसघायंतराय संजलण पुरिस सत्तरसं । चउविहभावपरिणया तिभावसेसा सयं तु सत्तहियं ॥४८६॥ - १७४१०७। अथ विपाकरूपोऽनुभागो गाथाद्वयेन कथ्यते-['भावरणदेशघायं' इत्यादि । आवरणेषु देशघातीनि मति-श्रुतावधि मनःपर्ययज्ञानचक्षुरचक्षुरवधिदर्शनावरणानि ७ पञ्चान्तरायाः ५ चतुःसंज्वलनाः ४ पुवेदश्चेति सदशप्रकृतयः १७ लतादास्थिशैल-लतादार्वस्थि-लतादारु-लतेति चतुर्विधानुभागभावपरिणता भवन्ति । शेषाः सप्ताधिकशतप्रमिताः प्रकृतयः १०७ वर्णचतुष्कं द्विवारगणितम् । भासा प्रकृतीना मिश्र-सम्यक्त्वप्रकृतीनां विमा धात्यघातिना सर्वासां त्रिविधा भावा दावस्थिपाषाणतुल्याः त्रिविधभावशक्तिपरिणता भवन्ति । तथाहिशेषा मिश्रोन-केवलज्ञानावरणादिसर्वघातिविंशतिः २० नोकषायाष्टकं - अघातिपञ्चसप्तति ७५ श्च दार्गस्थिशैलसरशत्रिधानुभागपरिणता भवन्ति ॥४६॥ २०1८७५ .. शेल . .२०१८७५ भ० भ०१७ अस्थि अस्थि २०.८७५ दा. दा. दा. १७ दारु दारु ल. तीन मध्यम मन्द मतिज्ञानावरणादि चार, चक्षुदर्शनावरणादि तीन, अन्तरायकी पाँच, संज्वलनचतुष्क और पुरुषवेद, ये सत्तरह प्रकृतियाँ लता, दारु, अस्थि और शैलरूप चार प्रकारके भावोंसे प्ररिणत हैं। अर्थात् इनका अनुभागबन्ध, एकस्थानीय, द्विस्थानीय, त्रिस्थानीय और चतुःस्थानीय होता है। शेष १०७ प्रकृतियाँ दारु, अस्थि और शैलरूप तीन प्रकारके भावोंसे परिणत होती हैं। उनको एकस्थानीय अनुभागबन्ध नहीं होता है ॥४८६॥ "सुहपयडीणं भावा गुड-खंड-सियामयाण खलु सरिसा । इयरा दुणिंब-कंजीर-विस-हालाहलेण अहमाई ॥४८७॥ एस्थ इयरा भसुहपयीभावा । शै० 1. सं० पञ्चसं० ४, ३१६-३१८। 2. ४, ३१६ । १. शतक० ८३ । परं तत्र चतुर्थचरणे पाठोऽयम्-'तिविह परिणया सेसा' । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001937
Book TitlePanchsangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages872
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size21 MB
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