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________________ पञ्चसंग्रह मिथ्यात्वगुणस्थानमें देवायु, नरकायु और तिर्यगायुके विना एक सौ पैंतालीस प्रकृतियोंका सत्त्व और तीनका असत्त्व रहता है । सत्त्व-व्युच्छित्ति किसी भी प्रकृतिकी नहीं होती । सासादन गुणस्थानमें तीर्थङ्कर और आहारक-द्विकके विना एक सौ व्यालीस प्रकृतियोंका सत्त्व और छहका असत्त्व रहता है। मिश्रगुणस्थानमें आहारक-द्विककी भी सत्ता पाई जाती है, अतः एक सौ चवालीसका सत्त्व और चार प्रकृतियोंका असत्त्व रहता है। अविरतसम्यक्त्वमें तीर्थकर प्रकृतिकी भी सत्ता पाई जाती है, अतः एक सौ पैंतालीस प्रकृतियोंका सत्त्व और तीन प्रकृतियोंका असत्त्व रहता है, इस गुणस्थानमें क्षायिकसम्यग्दृष्टिजीवकी अपेक्षा अनन्तानुबन्धी-चतुष्क और दर्शनमोह-त्रिक इन सात प्रकृतियोंका अभाव पाया जाता है इसलिए सात प्रकृतियोंकी सत्त्व-व्युच्छत्ति होती है। अविरतके समान देशविरत, प्रमत्तविरत और अप्रमत्तविरतमें भी एक सौ पैंतालीस प्रकृतियोंका सत्त्व, तीनका असत्त्व और सातकी सत्त्व-व्युच्छित्ति जानना चाहिए। अपूर्वकरणमें एक सौ अड़तीस प्रकृतियोंका सत्त्व होता है, क्योंकि क्षायिकसम्यक्त्व होते समय अनन्तानुबन्धी-चतुष्क और दर्शनमोह-त्रिकका तो क्षय पहले ही कर दिया था। तथा नरकायु, तिर्यगायु और देवायु, इन तीनको भी सत्ता यहाँ नहीं पाई जाती है, अतः दश प्रकृतियोंका असत्त्व रहता है। अनिवृत्तिकरणके नौ भागोंमें क्रमसे सोलह, आठ, एक, एक, छह, एक, एक, एक और एक प्रकृतिकी सत्त्वव्युच्छित्ति होती है, अतः उन भागोंमेंसे पहले भागमें एक सौ अड़तीस प्रकृतियोंका सत्त्व और दशका असत्त्व है। यहाँ स्त्यानगृद्धि आदि सोलहकी सत्त्वव्युच्छित्ति होती है। दूसरे भागमें एक सौ बाईसका सत्त्व और छव्वीसका असत्त्व है, तथा आठ मध्यम कषायोंकी सत्वच्यच्छिनि होती है। तीसरे भागमें एक सौ चौदहका सत्त्व और चौंतीसका सत्त्व है। यहाँ पर एक नपुंसकवेदकी सत्त्वव्युच्छित्ति होती है। चौथे भागमें एक सौ तेरहका सत्त्व और पैंतीसका असत्त्व है। एक स्त्रीवेदकी सत्त्व-व्युच्छित्ति होती है। पाँचवें भागमें एक सौ बारहका सत्त्व और छत्तीसका असत्त्व है। यहाँ पर हास्यादि छह नोकषायोंकी सत्त्वव्युच्छित्ति होती है। छठे भागमें एक सौ छहका सत्त्व और व्यालीसका असत्त्व है। एक पुरुषवेदकी सत्त्व-व्युच्छित्ति होती है। सातवें भागमें एक सौ पाँचका सत्त्व और तेतालीसका असत्त्व है तथा एक संज्वलनक्रोधकी सत्त्व-व्युच्छित्ति होती है। आठवें भागमें एक सौ चारका सत्त्व और चवालीसका असत्त्व है, तथा एक संज्वलन मानकी सत्त्व-व्युच्छित्ति होती है। नवे भागमें एक सौ तीनका सत्त्व और पैतालीसका असत्त्व है, तथा एक संज्वलन मायाकी सत्त्व-व्युच्छित्ति होती है। सूक्ष्मसाम्परायगुणस्थानमें एक सौ दो प्रकृतियोंका सत्त्व और छथालीसका असत्त्व है, तथा एक संज्वलन लोभकी सत्त्व-व्युच्छित्ति होती है। उपशान्तमोहमें एक सौ एक प्रकृतियोंका सत्त्व और सैंतालीसका असत्त्व है। यहाँ पर किसी भी प्रकृतिको सत्त्व- . व्युच्छित्ति नहीं होती। क्षीणमोहके द्विवरम समयमें एक सौ एकका सत्त्व और सैंतालीसका असत्त्व रहता है। यहाँ पर निद्रा और प्रचला इन दो प्रकृतियोंकी सत्त्व-व्युच्छित्ति होती है। क्षीणमोहके चरमसमयमें निन्यानवे प्रकृतियोंका सत्त्व और उनचास प्रकृतियांका असत्त्व रहता है। यहाँ पर ज्ञानावरणकी पाँच, दर्शनावरणकी चार और अन्तरायकी पाँच; इन चौदह प्रकृतियोंकी सत्त्व-व्युच्छित्ति होती है । सयोगिकेवलीके पचासीका सत्त्व और तिरेसठका असत्त्व रहता है। यहाँ पर किसी भी प्रकृतिको सत्त्व-व्यच्छित्ति नहीं होती। अयोगिकवलीके द्विचरम समयमें पचासीका सत्त्व और तिरेसठका असत्त्व रहता है। यहाँ पर आगे कही जानेवाली देव-द्विक आदि बहत्तर प्रकृतियोंकी सत्त्व-व्युन्छित्ति होती है। अयोगिकेवलीके चरम समयमें तेरहका सत्त्व और एक सौ पैतीसका असत्त्व रहता है। इसी समय मनुष्य-द्विक आदि आगे कही जानेवाली तेरह प्रकृतियोंकी सत्त्व-व्युच्छित्ति होती है। इस प्रकार सर्व गुणस्थानोंमें कर्मोकी उत्तर प्रकृतियोंका सत्त्व-असत्त्वादि जानना चाहिए। (देखो, संदृष्टि-संख्या १३) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001937
Book TitlePanchsangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages872
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size21 MB
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