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________________ पञ्चसंग्रह १० सूक्ष्मसाम्परायगुणस्थानका स्वरूप 'कोसुंभो जिह राओ अब्भंतरदो य सुहुमरत्तो य । एवं सुहुमसराओ सुहुमकसाओ त्ति णायव्वो ॥२२॥ पुव्वापुव्वप्फड्डयअणुभागाओ अणंतगुणहीणे + । लोहाणुम्मि य द्विअओ हंदि सुहुमसंपराओ य ॥२३॥ जिस प्रकार कुसूमली रंग भीतरसे सूक्ष्म रक्त अर्थात् अत्यन्त कम लालिमावाला होता है, उसी प्रकार सक्षम राग-सहित जीवको सुक्ष्मकषाय या सूक्ष्मसाम्पराय ज जानना चाहिए। लोभाणु अर्थात् सूक्ष्म लोभमें स्थित सूक्ष्मसाम्परायसंयत पूर्वस्पर्धक और अपूर्वस्पर्धकके अनुभाग से अनन्तगुणितहीन अनुभागवाला होता है ।।२२-२३।। V विशेषार्थ--अनेक प्रकारकी अनुभाग शक्तिसे युक्त कार्मणवर्गणाओंके समूहको स्पर्धक कहते हैं। जो स्पर्धक अनिवृत्तिकरणके पहले पाये जाते हैं, उन्हें पूर्वस्पर्धक कहते हैं। जिन स्पधकोंका अनिवृत्तिकरणके निमित्तसे अनुभाग क्षीण होता है, उन्हें अपर्वस्पर्धक कहते हैं। सूक्ष्मकषाय-सम्बन्धी स्पर्धककी अनुभाग-शक्ति उक्त दोनों ही स्पर्धकोंकी अनुभाग-शक्तिसे अनन्तगुणी हीन होती है। ११ उपशान्तकषायगुणस्थानका स्वरूप "सकयाहलं जलं वा सरए सरवाणिय व जिम्मलयं । सयलोवसंतमोहो उवसंतकसायओ होई ॥२४॥ कतकफल (निर्मली )से सहित जल, अशवा शरद् कालमें सरोवरका पानी जिस प्रकार निर्मल होता है, उसी प्रकार जिसका सम्पूर्ण मोहकर्म सर्वथा उपशान्त हो गया है, ऐसा उपशान्तकपायगुणस्थानवी जीव अत्यन्त निर्मल परिणामवाला होता है ॥२४॥ १२ क्षीणकषायगुणस्थानका म्वरूप अणिस्सेसखीणमोहो फलिहामलभायणुदयसमचित्तो । खीणकसाओ भण्णइ णिग्गंथो वीयराएहिं ॥२५॥ जह सुद्धफलिहभायणखित्तंणीरं खु +णिम्मलं सुद्धं । तह ४ णिम्मलपरिणामो खीणकसाओ मुणेयव्वो ॥२६॥ मोहकर्मके निःशेष क्षीण हो जानेसे जिसका चित्त स्फटिकके विमल भाजनमें रक्खे हुए सलिलके समान स्वच्छ हो गया है, ऐसे निर्ग्रन्थ साधुको वीतगगियोंने क्षीणकपायसंयत कहा है । जिस प्रकार निर्मली, फिटकरी आदिसे स्वच्छ किया हुआ जल शुद्ध-स्वच्छ स्फटिकमणिके भाजनमें नितरा लेनेपर सर्वथा निर्मल एवं शुद्ध होता है, उसी प्रकार क्षीणकपायसंयतको भी निर्मल, स्वच्छ एवं शुद्ध परिणामवाला जानना चाहिये ।।२५-२६।। 1. सं० पं० सं० १, ४१-४४ । . १, ४७।३.१, ४८। १. गो. जी. ५६, परं तत्र प्रथम-द्वितीयचरणयोः 'धुदकोसुंभयवत्थं होदि जहा सुहमरायसंजुत्तं' ईक् पाठः । २. ध० भा० १ पृ० १८८ गा० १२१ । ३. गो० जी० ६१, परं तत्र प्रथमचरणे 'कदकफलजुदजलं वा' इति पाठः। ४. ध० भा० १ ० १६० गा० १२३ । गो. जी. ६२ । +बहीणो । * व नीरं । ब -निम्मलं । x ब -निम्मल । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001937
Book TitlePanchsangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages872
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size21 MB
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