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________________ जीवसमास ७ अप्रमत्तसंयतगुणस्थानका स्वरूप 'णट्ठासेसपमाओ वयगुणसीलोलिमंडिओ णाणी । अणुवसमओ x अखवओ झाणणिलीणो हु अप्पमत्तो सो॥१६॥ जो व्यक्त और अव्यक्तरूप समस्त प्रकारके प्रमादसे रहित है, महाबत, मूलगुण और और उत्तरगुणोंकी मालासे मंडित है, स्व और परके ज्ञानसे युक्त है, और कषायोंका अनुपशमक या अक्षपक होते हुए भी ध्यानमें निरन्तर लोन रहता है, वह अप्रमत्तसंयत कहलाता है ॥१६॥ ८ अपूर्वकरणसंयतगुणस्थानका स्वरूप भिण्णसमयट्टिएहिं दु जीवेहि ण होइ सव्वहा सरिसो। करणेहिं एयसमयट्टिएहिं सरिसो विसरिओ वा ॥१७॥ एयम्मि गुणहाणे विसरिससमयट्ठिएहिं जीवेहिं । पुव्वमपत्ता जम्हा होंति अपुव्वा हु परिणामा ॥१८॥ तारिसपरिणामट्ठियजीवा हु जिणेहिं गलियतिमिरेहिं । मोहस्सऽपुव्वकरणा खवणुवसमणुञ्जया भणिया ॥१३॥ इस गुणस्थानमें, भिन्न समयवर्ती जीवोंमें करण अर्थात् परिणामोंकी अपेक्षा कभी भी सादृश्य नहीं पाया जाता। किन्तु एक समयवर्ती जीवोंमें सादृश्य और वैसादृश्य दोनों ही पाये जाते हैं । इस गुणस्थानमें यतः विभिन्न-समय-स्थित जीवोंके पूर्व में अप्राप्त अपूर्व परिणाम होते हैं; अतः उन्हें अपूर्वकरण कहते हैं। इस प्रकारके अपूर्वकरण परिणामोंमें स्थित जीव मोहकर्मके क्षपण या उपशमन करनेमें उद्यत होते हैं, ऐसा गलित-तिमिर अर्थात् अज्ञानरूप अन्धकारसे रहित वीतरागी जिनोंने कहा है ।।१७-१६।। ६ अनिवृत्तिकरणसंयतगुणस्थानका स्वरूप "एक्कम्मि कालसमए संठाणादीहि जह णिवट्ठति । ण *णिवट्ठति तह चिय परिणामे हिं मिहो जम्हां ॥२०॥ होति अणियट्टिणो ते पडिसमयं जेसिमेकपरिणामा। विमलयर झाणहुयवहसिहाहिं णिद्दड्डकम्मवणा ॥२१॥ इस गुणस्थानके अन्तर्मुहूर्त-प्रमित कालमें से विवक्षित किसी एक समयमें अवस्थित जीव यतः संस्थान (शरीरका आकार ) आदिकी अपेक्षा जिस प्रकार निवृत्ति या भेदको प्राप्त होते हैं, उस प्रकार परिणामोंकी अपेक्षा परस्पर निवृत्तिको प्राप्त नहीं होते हैं, अतएव वे अनिवृत्तिकरण कहलाते हैं। अनिवृत्तिकरण गणस्थानवी जीवोंके प्रति समय एक ही परिणाम होता है। ऐसे ये जीव अपने अति विमल ध्यानरूप अग्निको शिखाओंसे कर्मरूप वनको सर्वथा जला डालते हैं ।।२०-२१॥ 1. सं० पंचसं० १, ३४ । 2. १, ३५-३७ । B. १, ३८-४०।। १. ध० भा० १ पृ. ५७६ गा० १५५। गो० जी० ४६ । २. ध० भा० १ पृ० १८३ गा० ११६ । गो० जी० ५२ । ३. ध० भा० १ पृ० १८३ गा० ११७ । गो. जी. ५१ । ४. ध भा० १ पृ० १८३ गा० ११८ । गो० जी० ५४ । ५. ध० भा० १ पृ० १८६ गा० ११ । गो० जी० ५६ । ६. ध० भा० १ पृ० १८६ गा० १२० । गो० जी० ५७ । ४द ब -यखवओ। ब -निव०। ब-दर । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001937
Book TitlePanchsangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages872
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size21 MB
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