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________________ ४ ४ अविरतसम्यक्त्वगुणस्थानका स्वरूप- पञ्चसंग्रह 'णो इंदिएस विरदो णो जीवे थावरे तसे चावि * । जो सद्दह जिणुत्तं सम्माहट्ठी अविरदो +सो ॥११॥ सम्माट्ठी जीवो उवहट्ठ पवयणं तु सद्दहदि । सदहइ असम्भावं अजाणमाणो गुरुणिओगा ॥१२॥ जो पाँचों इन्द्रियोंके विषयोंसे विरत नहीं है और न त्रस तथा स्थावर जीवोंके घातसे ही विरक्त है, किन्तु केवल जिनोक्त तत्त्वका श्रद्धान करता है, वह चतुर्थ गुणस्थानवर्ती अविरतसम्यग्दृष्टि है । सम्यग्दृष्टि जीव जिन उपदिष्ट प्रवचनका तो श्रद्धान करता ही है, किन्तु कदाचित् ( सद्भावको ) नहीं जानता हुआ गुरुके नियोग ( उपदेश या आदेश ) से असद्भावका भी श्रद्धान कर लेता है ।११-१२॥ ५ देशविरतगुणस्थानका स्वरूप जो ताउ विरदो णो विरओ अक्ख थावरवहाओ X / पडिसमयं सो जter विरयाविरओ जिणेकमई || १३ || जो जीव एक मात्र जिन भगवान् में ही मति ( श्रद्धा ) को रखता है, तथा त्रस जीवोंके घातसे विरत है और इन्द्रिय-विषयोंसे एवं स्थावर जीवोंके घातसे विरक्त नहीं है, वह जीव प्रति समय विताविरत है । अर्थात् अपने गुणस्थान के कालके भीतर हर क्षण विरत और अविरत इन दोनों संज्ञाओंको एक साथ एक समय में धारण करता है ||१३|| ६ प्रमत्तसंयत गुणस्थानका स्वरूप- Jain Education International 'वत्तावत्तपमाए जो वसइ पमत्तसंजओ होइ । सयलगुणसी लकलिओ महव्वई चित्तलायरणो ॥१४॥ विकहा तहा कसाया इंदियणिद्दा तहेव पणओ य । चदुचदु पण एगेगं होंति पमादा हु पण्णरसा ॥१५॥ जो पुरुष सकल मूलगुणोंसे और शील अर्थात् उत्तरगुणोंसे सहित है, अतएव महाव्रती है; तथा व्यक्त और अव्यक्त प्रमादमें रहता है, अतएव चित्रल-आचरणी है; वह प्रमत्त संयंत कहलाता है । चार विकथा ( स्त्रीकथा, भोजनकथा, देशकथा, अवनिपालकथा ) चार कपा ( क्रोध, मान, माया, लोभ) पाँच इन्द्रिय ( स्पर्शन, रसना, नासिका, नयन, श्रवण ) एक निद्रा और एक प्रणय ( प्रेम या स्नेह-सम्बन्ध ) ये पन्द्रह ( ४+४+५+१+१ = १५ ) प्रमाद होते हैं ॥१४-१५॥ 1. सं० पञ्चसं० १, २३ । 2. १, २४ । ३. १,२८ । 4. १, ३३ । १. ६० भा० १ ० १७३ गा० १११ । गो० जी० २६ । २. ६० भा० १ पृ० ३७३ गा० ११० । गो० जी० २७ । ३. ध० भा० १ पृ० १७५ गा० ११२ । गो० जी० ३१ । ४. घ० भा० १ पृ० १७८ गा०११३ । गो० जी० ३३ । ५. ध० भा० १ पृ० १७८ गा० ११४ । गो० जी० ३४ । * गो०जी० 'वापि' । + अरहंते य पदत्थे भविरदसम्मो दु सद्दहदि । इति प्राकृतवृत्तौ मूलगाथापाठः । x थूले जीवे वधकरणवज्जगो हिंसगो य इदराणं । एक्कम्हि चेव समए विरदाविरदुति णादव्वो ॥ इति प्राकृतवृत्तौ मूलगाथापष्ठः । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001937
Book TitlePanchsangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages872
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size21 MB
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