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________________ जीवसमास दर्शनमोहनीयादि कर्माकी उदय, उपशम, क्षय, क्षयोपशम आदि अवस्थाओंके होने पर, उत्पन्न होनेवाले जिन भावोंसे जीव लक्षित किये जाते हैं, उन्हें सर्वदर्शियोंने 'गुणस्थान' इस संज्ञासे निर्देश किया है । १ मिथ्यात्व, २ सासादन, ३ मिश्र (सम्यग्मिथ्यात्व), ४ अविरतसम्यक्त्व, ५ देशविरत, ६ प्रमत्तविरत, ७ अप्रमत्तविरत, ८ अपूर्वकरणसंयत, ६ अनिवृत्तिकरणसंयत, १० सूक्ष्मसाम्परायसंयत, ११ उपशान्तमोह, १२ क्षीणमोह, १३ सयोगिकेवलिजिन और १४ अयोगिकेवली ये क्रमसे चौदह गुणस्थान होते हैं। तथा सिद्धोंको गुणस्थानातीत जानना चाहिए ॥३-५॥ १ मिथ्यात्वगुणस्थानका स्वरूप 'मिच्छत्तं वेदंतो जीवो विवरीयदंसणो होइ । ण य धम्मं रोचेदि हु महुरं पि रसं जहा जरिदो ॥६॥ तं मिच्छत्तं *जमसद्दहणं तिचाण होदि अत्थाणं । संसइद x मभिग्गहियं अणभिग्गहियं तु तं तिविहं ॥७॥ मिच्छादिट्ठी जीओ उवइहं पवयणं ण सद्दहदि । सद्दहदि असब्भाव उवइष्टं अणुवइट्ठ + च ॥८॥ मिथ्यात्वकर्मको वेदन अर्थात् अनुभव करनेवाला जीव विपरीतश्रद्धानी होता है । उसे धर्म नहीं रुचता है, जैसे कि ज्वर-युक्त मनुष्यको मधुर (मीठा) रस भी नहीं रुचता है जो सात तत्वों या नव पदार्थोंका अश्रद्धान होता है, उसे मिथ्यात्व कहते हैं। वह तीन प्रकारका है-- संशयित, अभिगृहीत और अनभिगृहीत । मिथ्याष्टि जीव जिन-उपदिष्ट प्रवचनका श्रद्धान नहीं करता है। प्रत्युत अन्यसे उपदिष्ट या अनुपदिष्ट असद्भाव अर्थात् पदार्थके अयथार्थ स्वरूपका श्रद्धान करता है ॥६-८॥ २ सासादनगुणस्थानका स्वरूप सम्मत्तरयणपव्वयसिहरादो> मिच्छभावसमभिमुहो । णासियसम्मत्तो सो सासणणामो मुणेयव्वो ॥६॥ सम्यक्त्वरूप रत्न-पर्वतके शिखरसे च्युत, मिथ्यात्वरूप भूमिके समभिमुख ओर सम्यक्त्वके नाशको प्राप्त जो जीव है, उसे सासादन नामवाला जानना चाहिए |Hell ३ सम्यग्मिथ्यात्वगुणस्थानका स्वरूप दहिगुडमिव वामिस्सं पिहुभावं ' णेव कारिदुं सकं । एवं मिस्सयभावो सम्मामिच्छो त्ति णायव्वो" ॥१०॥ जिस प्रकार व्यामिश्र अर्थात् अच्छी तरहसे मिला हुआ दही और गुड़ पृथक्-पृथक् नहीं किया जा सकता, उसी प्रकारसे सम्यक्त्व और मिथ्यात्वके मिश्रित भावको सम्यग्मिथ्यात्व जानना चाहिए । यह सम्यक्त्व और मिथ्यात्वका सम्मिश्रण उन दोनों के स्वतंत्र आस्वादसे एक भिन्न-जातीय रूपको धारण कर लेता है, अतएव उसको अपेक्षासे मिश्रभावको एक स्वतन्त्र गुणस्थान माना गया है । ॥१०॥ 1. सं० पञ्च सं० १, १६।.१, २०।.१, ३२। १. धवला, भा० १, पृ० १६२ गा० १०६ । गो० जी०१७ । २. ध० भा० १, पृ० १६३ गा० १०७ । ३. गो. जी. १८, ६५५ । ४. ध० भा० १ पृ० १६६ गा० १०८ । गो० जी० २० । ५. ध० भा० १, पृ० १७० गा०५०६ । गो० जी० २२। *ब-जं असहहणं । बि-तचाण । - ब-मवि । +ब-वा। >ब-सिहरगओ। वनय । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001937
Book TitlePanchsangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages872
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size21 MB
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