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________________ पञ्चसंग्रह इस नमस्काररूप गाथासूत्रका विवरण इस प्रकार है:-द्रव्यकी अपेक्षा स्वप्रमाणसे सर्व जीव कितने हैं ? अनन्त हैं। क्षेत्रकी अपेक्षा सर्व जीव कितने हैं ? अनन्त लोक-प्रमाण हैं। कालकी अपेक्षा सर्व जीव कितने हैं ? अतीत कालसे अनन्तगुणित हैं । भावकी अपेक्षा सर्व जीव कितने हैं ? केवलज्ञानके अनन्तवें भागमात्र हैं। पुद्गल, काल और आकाश द्रव्यका परिमाण जीवद्रव्यके प्रमाणके समान है। विशेषता केवल यह है कि जीवराशिसे पुद्गलराशि अनन्तगुणित है, पुद्गलगशिसे कालराशि अनन्तगुणित है और कालराशिसे आकाशद्रव्य अनन्तगुणित है, ऐसा कहना चाहिए । धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय ये दोनों ही द्रव्यकी अपेक्षा असंख्यात हैं । क्षेत्रकी अपेक्षा लोकप्रमाण हैं। कालकी अपेक्षा अतीत कालके अनन्तवें भाग हैं। भावकी अपेक्षा केवलज्ञानके अनन्तवें भाग हैं और दोनों ही द्रव्य अवधिज्ञानके असंख्यातवें भाग हैं। नौ पदार्थों के मध्यमें जीव और अजीव पदार्थका परिमाण पूर्वके भंग है अर्थात् जीवादि द्रव्योंके परिमाणके समान है। पुण्य और पाप ये दोनों ही पदाथ द्रव्यकी अपेक्षा असंख्यात है। क्षेत्रकी अपेक्षा धनांगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं । कालकी अपेक्षा पल्योपमके असंख्यातवें भागमात्र हैं। भावकी अपेक्षा अवधिज्ञानके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं। आस्रवादि पांचों पदार्थोंका प्रमाण द्रव्यकी अपेक्षा अभव्यसिद्धांसे अनन्तगुणित है। अथवा सिद्धोंके अनन्तवें भागमात्र है। क्षेत्रकी अपेक्षा अनन्त लोकप्रमाण है। कालकी अपेक्षा अतीतकालसे अनन्तगुणित है और भावकी अपेक्षा केवलज्ञानके अनन्तवें भागमात्र है। जीव-प्ररूपणाके भेद 'गुण जीवा पज्जत्ती पाणा सण्णा य मग्गणाओ य । उवओगो वि य कमसो वीसं तु परूवणा भणिया ॥२॥ . १४।१४।६।१०।४।१४ (४।५।६।१५।३।१६।८।७४।६।२।६।२।२ ) १२ । गुणस्थान, जीवसमास, पर्याप्ति, प्राण, संज्ञा, चौदह मार्गणाएं और उपयोग; इस प्रकार क्रमसे ये बीस प्ररूपणा कही गई हैं ॥२॥ गुणस्थानके १४, जीवसमासके १४, पर्याप्तिके ६, प्राणके १०, संज्ञाके ४, मार्गणाके १४ और उपयोगके १२ भेद हैं। इनमेंसे १४ मार्गणाओं के अवान्तर भेद इस प्रकार हैं-गति ४, इन्द्रिय ५, काय ६, योग १५, वेद ३, कषाय १६, ज्ञान ८, संयम ७, दर्शन ४, लेश्या ६, भव्यत्व २, सम्यक्त्व ६, संज्ञित्व २ और आहार २ । गुणस्थानका स्वरूप और भेद जेहिं दु लक्खिजंते उदयादिसु संभवेहिं भावेहिं ।। जीवा ते गुणसण्णा णिद्दिट्टा सव्वदरिसीहिं ॥३॥ अमिच्छो सासण मिस्सो अविरदसम्मो व देसविरदो य । विरदो पमत्त इयरो अपुव्व अणियट्टि सुहुमो य ॥४॥ उवसंतखीणमोहो सजोगिकेवलिजिणो अजोगी य। चोदस गुणट्ठाणाणि य कमेण सिद्धा य णायव्वा ॥५॥ 1. सं० पञ्चसं० १, ११ । १. १, १२ । 3. १, १५-१८ । १. गो० जी० २ । २. धवला. भा. १, पृ० १६१ गा० १०५, गो० जी० ८।३. गो. जी है। ४. गो० जी० १०; परं तन्त्र तृतीयचरणे 'चोहस जीवसमासा' इति पाठः । * ब-उग्गो । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001937
Book TitlePanchsangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages872
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size21 MB
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