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________________ ५०२ पञ्चसंग्रह त्रिषु वेदेषु प्रत्येक बन्धाष्टकम् २३॥२५२६२८२६३०३११ । उदयस्थानाष्टकम् २१०२५/२६। २।२६।३०।३१ । सत्त्वस्थानकादशकम् १३।१२।११1801८८1८४८२८०.७६७८१७७ । अत्र स्त्रीपुंवेदयोन चतुर्विशतिकं स्थानम्, तस्यकेन्द्रियेष्वेवोदयात् । स्त्री-पण्ढयो शीतिकाष्टसप्ततिके, तीर्थसत्त्वस्य पुंवेदोदयेनैव क्षपक श्रेण्याऽऽरोहणात् । इति वेदमार्गणा समाप्ता । वेदमार्गणाकी अपेक्षा तीनों वेदोंवालोंके सत्तास्थान तो कार्मणकाययोगियोंके समान वे ही ग्यारह; और बन्धस्थान सर्व ही होते हैं। उदयस्थान इक्कीस और पच्चीसको आदि लेकर इकतीस तकके जानना चाहिए ॥४४१।। तीनों वेदियोंके बन्धस्थान २३, २५, २६, २७, २६, ३०, ३१,१ये आठ; उदयस्थान २१, २५, २६, २७, २८, २९, ३०, ३१ ये आठ तथा सत्तास्थान ६३, ६२, ६१,६०,८८,८४, ८२, ८०, ७६, ७% और ७७ ये ग्यारह होते हैं। कोहाइचउसु बंधा सव्वे संता हवंति ते चेव । उवरिं दो वज्जित्ता उदया सव्वे मुणेयव्वा ॥४४२॥ कप्साए बंधा ८-२३।२५।२६।२८।२६।३०।३१।। उदया १-२१।२४।२५।२६।२७।२८।२६। ३०।३।। संता ११-१३।१२।११।०1८८८४८२८०७६७८७७ । क्रोधादिचतुषु बन्धस्थानानि सर्वाण्यष्टौ ८ । सत्वस्थानानि तान्येव पूर्वोक्तान्येकादश ११ । उदयस्थानानि उपरितननवाष्टकस्थानद्वयं वर्जयित्वा सर्वाप्युदयस्थानानि नव ज्ञातव्यानि ॥४४२॥ ___कषायेषु चतुषु बन्धस्थानाष्टकम् २३।२५।२६।२८।२६।३०।३१।५ । उदयस्थाननवकम् २११२४। २५॥२६॥२७॥२८।२६।३०।३१ । सत्त्वस्थानकादशकम् ६३।१२।११।१०।८८1८11८०७६७८७७। इति कषायमार्गणा समाप्ता। कषायमार्गणाकी अपेक्षा क्रोधादि चारों कषायवालोंके सभी बन्धस्थान होते हैं। तथा सभी सत्तास्थान होने हैं। उदयस्थान उपरिम दोको छोड़कर शेष नौ जानना चाहिए ॥४४२॥ चारों कषायवालोंके बन्धस्थान २३, २५, २६, २८, २९, ३०, ३१, १ ये आठ; उदयस्थान २१, २४, २५, २६, २७, २८, २९, ३०, ३१ ये नौ; तथा सत्तास्थान ६३, ६२, ६१,६०,८८,८४, ८२, ८०, ७६, ७८ और ७७ ये ग्यारह होते हैं। मइ-सुय-अण्णाणेसुं बंधा तेवीसाइ-तीसंतिया मुणेयव्वा । दुणउदि आइ छ संता ते उदया हवंति वेभंगे। ॥४४३॥ मइ-सुयअण्णाणे बंधा ६-२३।२५।२६।२८।२६३०। उदया है-२१॥२४॥२५।२६।२७।२८।२६। ३०॥३१ । संता ६-६२११1801८८८८२। ज्ञानमार्गणायां कुमति कुश्रुताज्ञानयो मबन्धस्थानानि त्रयोविंशतिका[दि-त्रिंशत्कान्तानि पट मन्तव्यानि २३।२५।२६।२८।२६।३० । सत्त्वस्थानानि द्वानवतिकादीनि षट् १२१११18011८1८४८२ । तान्येव कषायोक्तान्युदयस्थानानि नव २१।२४।२५।२६।२७।२८।२६।३०।३१ भवन्ति । विभङ्गज्ञाने [ उपरि वक्ष्यामः । ॥४४३॥ ज्ञानमार्गणाकी अपेक्षा मति और श्रुत-अज्ञानियोंमें बन्धस्थान तेईसको आदि लेकर तीस तकके छह जानना चाहिए। उदयस्थान कषायमार्गणाके समान वे ही नौ होते हैं । सत्तास्थान बानबैको आदि लेकर छह होते हैं । अब विभङ्गज्ञानियोंके स्थानोंका वर्णन करते हैं ॥४४३॥ 'ब वेभंगा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001937
Book TitlePanchsangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages872
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size21 MB
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