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________________ दशानां प्रकृतीनां भजघन्यबन्धः चतुर्विकल्पः सायनादि-धुवाधुवभेदेन चतुर्विधः ४ । शेषत्रिके जघन्यानुत्कृष्टोत्कृष्टबन्धत्रये साद्यध्रुवबन्धौ द्वौ इति ज्ञातव्यो भवति ॥४२१-४२२॥ स्थितिबन्धे अष्टादशोत्तरप्रकृतीनां साद्यादियन्त्रम्- १८ 15 १८ १८ ध्रुवबन्धः, जघन्य अजघन्य अनुत्कृष्ट उत्कृष्ट सादि सादि सादि आदि १०२ १०२ १०२ १०२ आगे कही जानेवाली अट्ठारह प्रकृतियोंका अजघन्य बन्ध सादि आदि चारों प्रकारका होता है । उनके शेषत्रिक अर्थात् उत्कृष्ट अनुत्कृष्ट और जघन्य स्थितिबन्ध सादि और अध्रुव होते हैं, ऐसा जानना चाहिए ||४२१|| अब भाष्यगाथाकार उन अट्ठारह प्रकृतियोंका नाम निर्देश करते हैं ज्ञानावरण और अन्तरायकी (५+५= ) दश, दर्शनावरणको चक्षुदर्शनावरणादि चार, तथा संज्वलन चार; इन अट्ठारह प्रकृतियोंका जो अजघन्यबन्ध है वह चार प्रकारका होता है ||४२२ ॥ अव मूलशतककार शेष उत्तरप्रकृतियोंके सादि आदिवन्धका निरूपण करते हैं जघन्य अजघन्य अनुत्कृष्ट उत्कृष्ट Jain Education International शतक [मूलगा०५४ ] 'उक्कस्समणुक्कस्सं जहण्णमजहण्णओ य ठिदिबंधो । साइयअद्ध्रुवबंधो पयडीणं होइ साणं ॥४२३॥ ॥१०२॥ शेषाणां द्वयधिकशतप्रकृतीनां १०२ उत्कृष्टस्थितिबन्धः साद्यध्रुवबन्धः, अनुत्कृष्टस्थितिबन्धः साद्यजघन्य स्थितिबन्धः साद्यध्रुवबन्धः, अजघन्यस्थितिबन्धः साद्यध्रुव अन्धो भवति ॥४२३॥ स्थितिबन्धे शेष १०२ प्रकृतीनां साद्यादियन्त्रम्- सादि सादि ० ० अनादि ध्रुव सादि सादि 1. सं० पञ्चसं० ४, २३७ । २.४, २३८ । १. शतक० ५६ । २. शतक० ५७ । ० अध्र ुव अध्र व अध्र ुव अध्रुव २५५ ० ० ऊपर कहीं गईं अट्ठारह प्रकृतियोंके सिवाय शेष जो १०२ बन्धप्रकृतियां हैं उनका उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य और अजवन्य स्थितिबन्ध सादि और अध्रुव होता है ||४२३|| अब कर्मोकी स्थितियों में शुभाशुभका निरूपण करनेके लिए उत्तर गाथासूत्र कहते हैं[ मूलगा ०५५ ] 2 सव्वाओ वि ठिदीओ सुहासुहाणं पि होंति असुहाओ । माणुस-तिरिक्ख-देवाउगं च मोत्तूण सेसाणं ॥ ४२४॥ For Private & Personal Use Only अध्रुव अध्र ुव अध्रुव भध्रु व अथ स्थितिबन्धे स्वामित्वमाह - [ 'सव्वाओ वि हिंदीओ' इत्यादि । ] मनुष्य तिर्यग्देवायूंषि त्रीणि मुक्त्वा शेषसर्वशुभाशुभप्रकृतीनां ११७ सर्वाः स्थितयः संसारहेतुत्वादशुभा एव भवन्ति ॥ ४२४ ॥ मनुष्यायु, तिर्यगायु और देवायु, इन तीनको छोड़कर शेष जितनी भी शुभ और अशुभ प्रकृतियाँ है, उन सबकी स्थितियाँ अशुभ ही होती हैं || ४२४ || www.jainelibrary.org
SR No.001937
Book TitlePanchsangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages872
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size21 MB
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