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________________ सप्ततिका ४९8 चउवीसं वज्जुदया बंधा संता तसेसु सव्वे वि । मण-वचि-चउरे बंधा सव्वे उणतीस आई य ति-उदया ॥४३४॥ पंचिंदियबंधा ८-२३।२५।२६।२८।२६।३०।३।३ । उदया १०-२११२५।२६।२०।२८।२६।३० ३१।६।८। संता १३-६३।१२।११।१०।८८८४८२१८०७६१७८१७७।१०।। मण-वचियोगबंधा ८-- २३।२५।२६।२८।२६।३।३१।१। उदया ३-२६।३०।३१ । पञ्चेन्द्रियत्रसेपु चतुर्विशतिकवर्जितोदयस्थानानि सर्वाणि । बन्धस्थानानि सरवस्थानानि च सर्वाणि भवन्ति । पञ्चेन्द्रियग्रसजीवेषु नामबन्धस्थानाष्टकम्-२३।२५।२६।२८।२६।३०।३१।१ । उदयस्थानदशकम्--२१।२५।२६।२७।२८।२६।३०।३१।६।८ । सत्वस्थानत्रयोदशकम्-१३।१२।११।६०1८८८४८४ । ८२८०1७६७८.७७11018 इति कायमार्गणा समाप्ता। अथ योगमार्गणायां मनोवचनचतुष्के मनोयोगचतुष्के वचनयोगचतुष्के च प्रत्येकं सर्वाण्यष्टौ बन्धस्थानानि २३।२५।२६।२८।२६।३०।३११ । उदयस्थानानि एकोनत्रिंशत्कादीनि त्रीणि एकोनविंशल्कत्रिंशत्केकत्रिंशत्कानि २६।३०।३१ ॥४३४॥ सकलेन्द्रिय सकायिकोंमें चौबीसप्रकृतिक स्थानको छोड़कर शेष सर्व बन्धस्थान और उदयस्थान; तथा सर्व ही सत्तास्थान होते हैं। योगमार्गणाकी अपेक्षा मनोयोगियों और वचनयोगियोंके बन्धस्थान तो सर्व ही होते हैं; किन्तु उदयस्थान उनतीसको आदि लेकर तीन ही होते हैं ।।४३४॥ पंचेन्द्रियोंमें बन्धस्थान २३, २५, २६, २८, २९, ३०, ३१ और १, ये आठ होते हैं । उदयस्थान २१, २५, २६, २७, २८, २९, ३०, ३१, ६ और ८; ये दश होते हैं। सत्तास्थान ६३, ६२, ६१, ६०, ८८,८४, ८२, ८०,७६, ७८, ७७, १० और है ये तेरह होते हैं । मनोयोगियों और वचनयोगियोंके बन्धस्थान २३, २५, २६, २८, २९, ३०, ३१ और १ ये आठ; तथा उदयस्थान २६, ३०, ३१ ये तीन होते हैं। वासीदिं दो उवरिं वजित्ता संतठाणाणि । बंधा सव्वोराले उदया पणुवीस आइ सत्तेव ॥४३॥ संता १०-१३।१२।११।१०।८८८४८०७६७८७७। उराले बंधा ८-२३।२५।२६।२८।२६॥ ३०॥३१1१। उदया ७-२५।२६।२७।२८।२६।३०॥३१॥ मनोवचनाष्टके प्रत्येक द्वयशीतिक-दशक-नवक-स्थानत्रयं वर्जयित्वा सर्वाणि । सत्वस्थानदशकम्६३।१२।११।१०।८८८४।८०1७६७८७७ । औदारिककाययोगे सर्वाण्यष्टौ बन्धस्थानानि २३१२५/२६॥ २८।२६।३०।३१।१ । उदयस्थानानि पञ्चविंशतिकादीनि सप्तव २५।२६।२७।२८।२६।३०।३१ ॥३५॥ मनोयोगियों और वचनयोगियोंके सत्तास्थान बियासी और दो उपरिमस्थानोंको छोड़कर शेष दश होते हैं । औदारिककाययोगियोंके बन्धस्थान सर्व होते हैं। किन्तु उदयस्थान पच्चीसको आदि लेकर सात ही होते हैं ॥४३५॥ मन और वचनयोगियोंके सत्तास्थान ६३, ६२, ६१,६०,८८,८४,८०, ७६, ७८ और ७७ ये दश होते हैं । औदारिककाययोगियोंके बन्धस्थान २३, २५, २६, २८, २९, ३०, ३१ और १ ये आठों ही होते हैं । उदयस्थान २५, २६, २७, २८, २६, ३० और ३१ ये सात होते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001937
Book TitlePanchsangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages872
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size21 MB
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