SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 125
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पञ्चसंग्रह अप्रमत्तविरतगुणस्थानमें बन्धसे व्युच्छिन्न होनेवाली प्रकृतियाँ देवाउअंच एयं पमत्तइयरम्हि णायव्वो ॥१६॥ ।३०॥ . अप्रमत्तविरतनामक सातवें गुणस्थानमें एक देवायु ही बन्धसे व्युच्छिन्न होती है, ऐसा जानना चाहिए ॥१॥ अप्रमत्तविरतमें बन्धसे व्युच्छिन्न १। अपूर्वकरणगुणस्थानमें बन्धसे व्युच्छिन्न होनेवाली प्रकृतियाँ-- [मूलगा०११] 'णिद्दा पयला य तहा अपुव्वपढमम्हि बंधवुच्छेओ। ।२। देवदुयं पंचिंदिय ओरालियवज चदुसरीरं च ॥२०॥ [मूलगा०१२] समचउरस वेउव्विय आहारयअंगुवंगणामं च । वण्णचउकं च तहा अगुरुयलहुयं च चत्तारि ॥२१॥ [मूलगा०१३] तसचउ पसत्थमेव य विहाइगइ थिर सुहं च णायव्या । ___ सुहयं सुस्सरमेव य आइज्जं चेव णिमिणं च ॥२२॥ [मूलगा०१४] "तित्थयरमेव तीसं अपुव्वछब्भाए बंधवोच्छिण्णा । हास रइ भय दुगुंछा अपुव्वचरिमम्हि बंधवोच्छिण्णा ॥२३॥ । __ अपूर्वकरणके प्रथम भागमें निद्रा और प्रचला, ये दो प्रकृतियाँ बन्धसे व्युच्छिन्न होती हैं। अपूर्वकरणके छठे भागमें देवद्विक (देवगति-देवगत्यानुपूर्वी) पंचेन्द्रियजाति, औदारिकशरीरको छोड़कर शेष चार शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वैक्रियिक-अंगोपांग, आहारक-अंगोपांग, वर्णचतुष्क ( वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श) अगुरुलघुचतुष्क ( अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छास ) त्रसचतुष्क, ( त्रस, बादर, प्रत्येकशरीर, पर्याप्त, ) प्रशस्तविहायोगति, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, निर्माण और तीर्थंकर, ये तीस प्रकृतियाँ बन्धसे व्युच्छिन्न होती हैं। अपूर्वकरणके अन्तिम सातवें भागमें हास्य, रति, भय और जुगुप्सा; ये चार प्रकृतियाँ बन्धसे व्युच्छिन्न होती हैं, ऐसा जानना चाहिए ॥२०-२३॥ अपूर्वकरणके प्रथम भागमें बन्धसे व्युच्छिन्न अपूर्वकरणके छठे भागमें बन्धसे व्युच्छिन्न अपूर्वकरणके सातवें भागमें बन्धसे व्युच्छिन्न । अनिवृत्तिकरणगुणस्थानमें बन्धसे व्युच्छिन्न होनेवाली प्रकृतियाँ[मूलगा०१५] 'पुरिसं चउसंजलणं पंच य पयडी य पंचभागम्हि । अणियट्टी-अद्धाए जहाकम बंधवुच्छेओ ॥२४॥ my 1. सं० पञ्चसं० ३, ३०-३३ । 2. ३, ३४ । 3. ३, ३५ । 1. कर्मस्त० गा० १७ । २. कर्मस्त० गा० १८ । ३. कमस्त० गा० १९ । ४. कर्मस्त० गा० २०। ५. कर्मस्त० गा० २१ । ६. कर्मस्त० गा० २२ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001937
Book TitlePanchsangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages872
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy