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कर्मस्तव
सासादनगुणस्थानमें बन्धसे व्युच्छिन्न होनेवाली प्रकृतियाँ[मूलगा० ६] 'थीणतियं इत्थी वि य अण तिरियाऊ तहेव तिरियदुगं ।
मज्झिमचउसंठाणं मज्झिमचउ वेव संघयणं ॥१॥ [मूलगा० ७] उजोयमप्पसत्था विहायगइ दुब्भगं अणादेज्जं । दुस्सर णिचागोयं सासणसम्मम्हि वोच्छिण्णा ॥१६॥
१२५ ___ स्त्यानत्रिक (स्त्यानगृद्धि, निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला ) स्त्रीवेद, अनन्तानुबन्धीचतुष्क, तिर्यगायु तथा तिर्यग-द्विक (तिर्यगाति-तिर्यग्गत्यानुपूर्वी) मध्यम चार संस्थान और मध्यम ही चार संहनन, उद्योत, अप्रशस्तविहायोगति, दुर्भग, अनादेय, दुःस्वर और नीचगोत्र; ये पच्चीस प्रकृतियाँ सासादनसम्यक्त्वमें बन्धसे व्युच्छिन्न होती हैं ।।१५-१६॥
सासादनमें बन्धसे व्युच्छिन्न २५ । अविरतसम्यग्दृष्टिगुणस्थानमें बन्धसे व्युच्छिन्न होनेवाली प्रकृतियाँ[मूलगा०८] विदियकसायचउक्कं मणुयाऊ मणुयदुव य ओरालं । तस्स य अंगोवंगं संघयणादी अविरदस्स ॥१७॥
। । द्वितीयकषायचतुष्क, अर्थात् अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ, मनुष्यायु, मनुष्यद्विक ( मनुष्यगति-मनुष्यगत्यानुपूर्वी) औदारिकशरीर, औदारिक-अंगोपांग और प्रथम संहनन; ये दश प्रकृतियाँ अविरतसम्यग्दृष्टिके बन्धसे व्युच्छिन्न होती हैं ॥१७॥
अविरतसम्यग्दृष्टिमें बन्धसे व्युच्छिन्न १० । देशविरतगुणस्थानमें बन्धसे व्युच्छिन्न होनेवाली प्रकृतियाँ[मूलगा०६] तइयकसायचउकं विरयाविरय म्हि बंधवोच्छिण्णा ।
।४।
तृतीय कषायचतुष्क अर्थात् प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया और लोभ ये चार प्रकृतियाँ विरताविरत गुणस्थानमें बन्धसे व्युच्छिन्न होती हैं।
देशविरतमें बन्धसे व्युच्छिन्न ४ । प्रमत्तविरतगुणस्थानमें बन्धसे व्युच्छिन्न होनेवाली प्रकृतियाँ
साइयरमरइसोयं तह चेव य अथिरमसुहं च ॥१८॥ [मूलगा०१०] अजस कित्ती य तहा पमत्तविरयम्हि बंधवुच्छेओ।
असातावेदनीय, अरति, शोक, अस्थिर, अशुभ और अयशःकीर्ति; ये छह प्रकृतियाँ प्रमत्तविरत गणस्थानमें बन्धसे व्युच्छिन्न होती है ।।१८।।
प्रमत्तविरतमें बन्धसे व्युच्छिन्न ६।
1. सं० पञ्चसं० ३, २३-२५। 2.३, २६-२७ । 3. ३, २८-२६ । १. कर्मस्तगा० १३ । २. कर्मस्तगा० १४ । ३. कर्मस्तगा० १५। ४. कर्मस्त० गा० १६ ।
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