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________________ ५६ पञ्चसंग्रह पाँचवें भागमें छप्पन प्रकृतियाँ बँधती हैं, चौसठ बन्धके अयोग्य हैं, बानबैका अबन्ध रहता है। इन भागोंमें बन्ध-व्युच्छित्ति किसी भी प्रकृतिकी नहीं होती है। अपूर्वकरणके छठे भागमें बन्धादि तो पाँचवें भागके ही समान ही रहता है किन्तु यहाँ पर देवद्विक आदि तीस प्रकृतियोंको बन्धव्युच्छित्ति होती है। अपूर्वकरणके सातवें भागमें छब्बीस प्रकृतियाँ बँधती हैं, चौरानबै बन्धके अयोग्य हैं, एक सौ बाईसका अबन्ध रहता है और हास्यादि चार प्रकृतियोंको बन्धव्युच्छित्ति होती है। अनिवृत्तिकरणके पाँच भागोंमें से प्रथम भागमें बाईस प्रकृतियाँ बँधती हैं, अट्ठानबै बन्धके अयोग्य हैं, एक सौ छब्बीसका अबन्ध है और एक पुरुषवेदकी बन्ध-व्युच्छित्ति होती है। द्वितीय भागमें इक्कीस प्रकृतियाँ बँधती हैं, निन्यानबै बन्धके अयोग्य हैं, एक सौ सत्ताईसका अबन्ध है और एक संज्वलन क्रोधकी बन्ध-व्युच्छित्ति होती है। तृतीय भागमें बीस प्रकृतियाँ बँधती हैं, सौ प्रकृतियाँ बन्धके अयोग्य हैं, एक सौ अट्ठाईसका अबन्ध है और एक संज्वलन मानको बन्ध-व्युच्छित्ति होती है। चतुर्थ भागम उन्नीस प्रकृतियों ब एक प्रकृतियाँ बन्धके अयोग्य हैं, एक सौ उनतीसका अबन्ध है और एक संज्वलन मायाकी बन्धव्युच्छित्ति होती है। पाँचवें भागमें अट्ठारह प्रकृतियाँ बँधती हैं, एक सौ दो प्रकृतियाँ बन्धके अयोग्य हैं, एक सौ तीसका अबन्ध है और एक संज्वलन लोभकी बन्ध-व्युच्छित्ति होती है। सूक्ष्मसाम्परायमें सत्तरह प्रकृतियाँ बँधती हैं, एक सौ तीन प्रकृतियाँ बन्धके अयोग्य हैं, एक सौ इकतीसका अबन्ध है और ज्ञानावरण-पंचक आदि सोलह प्रकृतियाँ बन्धसे व्युच्छिन्न होती हैं । उपशान्तमोह और क्षीणमोहमें केवल एक सातावेदनीयका बन्ध होता है, एक सौ उन्नीस बन्धके अयोग्य हैं और एक सौ सैंतालीसका अबन्ध रहता है। इन दोनों गुणस्थानोंमें बन्ध-व्युच्छित्ति नहीं होती। सयोगिकेवलीके बन्ध-अबन्धादिप्रकृतियोंकी संख्या तो क्षीणमोहके ही समान है, विशेष बात यह है कि यहाँ पर एकमात्र अवशिष्ट सातावेदनीय भी बन्धसे व्युच्छिन्न हो जाती है। अयोगिकेवलीके न किसी प्रकृतिका बन्ध ही होता है और न बन्ध-व्युच्छित्ति ही। अतएव यहाँ पर बन्धके अयोग्य एक सौ बीस और अबन्ध प्रकृतियाँ एक सौ अड़तालीस कहीं गई हैं, ऐसा जानना चाहिए । ( देखो संदृष्टि सं० १०) मिथ्यात्वगुणस्थानमें बन्धसे व्युच्छिन्न होनेवाली प्रकृतियाँ[मूलगा० ४] 'मिच्छ णउंसयवेयं णिरयाउ तह य चेव णिरयदु। इगि-वियलिंदियजाई हुंडमसंपत्तमायावं ॥१३॥ [मूलगा० ५] थावर सुहुमं च तहा साहारणयं तहेव अपजत्तं । एए सोलह पयडी मिच्छम्मि अ बंधवुच्छेओ ॥१४॥ ।१६। मिथ्यात्व, नपुंसकवेद, नरकायु तथा नरकद्विक (नरकगति-नरकगत्यानुपूर्वी) एकेन्द्रियजाति, विकलेन्द्रिय जातियाँ (द्वीन्द्रियजाति, त्रीन्द्रियजाति, चतुरिन्द्रियजाति) हुंडकसंस्थान, असंप्राप्तसृपाटिकासंहनन, आताप, स्थावर, सूक्ष्म तथा साधारण और अपर्याप्त; ये सोलह प्रकृतियाँ मिथ्यात्वगुणस्थानमें बन्धसे व्युच्छिन्न होती हैं ॥१३-१४॥ __ मिथ्यात्वमें बन्धसे व्युच्छिन्न प्रकृतियाँ १६ । 1. सं. पञ्चसं० ३, २१-२२ । १. कर्मस्त० गा०११। २. कर्मस्ता गा० १२ । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001937
Book TitlePanchsangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages872
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size21 MB
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