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________________ कर्मस्तव 'तित्थयराहारदुगूणा मिच्छम्मि सासादने १०१ मणुय-देवाउं विणा मिस्से ७४ १० तित्थयर-मणुय-देवाऊहिं सह अविरदे uru 99M G0m पमत्ते आहारदुगेण सह अप्पमत्ते अपुव्वकरणे सत्तसु ५८ ५६ ५६ ५६ ५६ ५६ २६ अणियट्टिपंचसु २२ २३ २० १६१८ भाएसु ६२ ६४ ६४ ६४ ६४ ६४ ६४ भाएसु १८६६ १०० १०१ १०२ १० १२ १२ १२ १२ १२ १२२ १२६ १२७ १२८ १२६ १३० सुहुमाइसु १०३ ११६ ११६ ११६ १२० १३१ १४७ १४७ १४७ १४८ आठों कर्मोको एक सौ अड़तालीस प्रकृतियोंमेंसे बन्धके योग्य प्रकृतियाँ एक सौ बीस पहले बतला आये हैं, उनमेंसे मिथ्यात्वगुणस्थानमें तीर्थंकर और आहारकद्विक ये तीन बन्धके अयोग्य हैं, अतः इन तीनके विना शेष एक सौ सत्तरह प्रकृतियाँ बंधती हैं, मिथ्यात्व आदि सोलह प्रकृतियोंकी बन्धसे व्युच्छित्ति होती है और इकतीसका अबन्ध रहता है। सासादन गुणस्थानमें एक सौ एक प्रकृतियाँ बँधती है, अनन्तानुबन्धीचतुष्क आदि पच्चीस प्रकृतियाँ बन्धसे व्युच्छिन्न होती हैं, उन्नीस बन्धके अयोग्य होती हैं और सैंतालीसका अबन्ध रहता है । मिश्रगुणस्थानमें मनुष्यायु और देवायुके विना शेष चौहत्तर प्रकृतियाँ बँधती हैं। यहाँपर किसी भी प्रकृतिका बन्ध-व्युच्छित्ति नहीं होती । यहाँ बन्धके अयोग्य छयालीस प्रकृतियाँ हैं और चौहत्तरका अबन्ध रहता है। अविरतसम्यक्त्वगुणस्थानमें तीर्थंकर, मनुष्यायु और देवायुका बन्ध होने लगता है, अतः उनको मिलाकर सतहत्तर प्रकृतियाँ बंधती हैं, अप्रत्याख्यानावरण-चतुष्क आदि दश प्रकृतियाँ बन्ध से व्युच्छिन्न होती है, तेतालीस प्रकृतियाँ बन्धके अयोग्य हैं और इकहत्तरका अबन्ध रहता है । देशविरतमें सड़सठका बन्ध होता है, तिरेपन बन्धके अयोग्य हैं, इक्यासीका अबन्ध रहता है और प्रत्याख्यानावरणचतुष्ककी बन्ध-व्युच्छित्ति होती है। प्रमत्तविरतमें तिरेसठका बन्ध होता है, सत्तावन बन्धके अयोग्य हे, पचासीका अबन्ध रहता है और असातावेदनीय आदि छह प्रकृतियाँ बन्धसे व्युच्छिन्न होती हैं। अप्रमत्तविरतमें आहारकद्विकका बन्ध होने लगता है, अतः उनसठ प्रकृतियों का बन्ध होता है, इकसठबन्धके अयोग्य हैं, नवासीका अबन्ध रहता है और एक देवायुकी बन्धसे व्युच्छित्ति होती है। अपूर्वकरणके सात भागों में से प्रथम भागमें अट्ठावन प्रकृतियोंका बन्ध होता है, बासठ बन्धके अयोग्य हैं, नब्बैका अबन्ध रहता है और निद्राद्विकको बन्ध-व्युच्छित्ति होती है। अपूर्वकरणके दूसरे, तीसरे, चौथे और 1. सं० पञ्चसं० ३, 'एतास्तीर्थकराहार' इत्यादिगद्यभागः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001937
Book TitlePanchsangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages872
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size21 MB
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