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कर्मस्तव अनिवृत्तिकरणकालके पाँचों भागोंमें यथाक्रमसे पुरुषवेद, संज्वलन क्रोध, मान, माया और लोभ; ये पाँच प्रकृतियाँ बन्धसे व्युच्छिन्न होती हैं ॥२४॥
अनिवृत्तिकरणमें बन्ध-व्युच्छिन्न ५। सूक्ष्मसाम्परायगुणस्थानमै बन्धसे व्युच्छिन्न होनेवाली प्रकृतियाँ[मूलगा०१६] ग्णाणंतरायदसयं दंसणचत्तारि उच्च जसकित्ती। एए सोलह पयडी सुहुमकसायम्हि वोच्छेओ ॥२॥
।६। ज्ञानावरणीयकी पाँच, अन्तरायको पाँच, दर्शनावरणकी चार (चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन और केवलदर्शन ) उच्चगोत्र और यशःकीर्ति; ये सोलह प्रकृतियाँ सूक्ष्मकषायमें . बन्धसे व्युच्छिन्न होती हैं ॥२५॥
__ सूक्ष्मसाम्परायमें बन्धसे व्युच्छिन्न १६ । सयोगिकेवलोके बन्धसे व्युच्छिन्न होनेवाली प्रकृति[मूलगा०१७] उवसंत खीण चत्ता जोगिम्हि य सायबंधवोच्छेदो।
णायव्वो पयडीणं बंधस्संतो अणंतो य ॥२६॥
उपशान्तमोह और क्षीणमोहगुणस्थानमें कोई प्रकृति बन्धसे व्युच्छिन्न नहीं होती है, अतएव उन्हें छोड़कर सयोगीजिनके एक सातावेदनीय ही बन्धसे व्युच्छिन्न होती है । (अयोगिकेवलीके न कोई प्रकृति बँधती है और न व्युच्छिन्न ही होती है।) इस प्रकार गुणस्थानोंमें बन्धका अन्त अर्थात् व्युच्छेद और अनन्त अर्थात् बन्ध जानना चाहिए ॥२६॥
सयोगिकेवलीमें बन्धसे व्युच्छिन्न १ ।। इस प्रकार बन्धसे व्युच्छिन्न होनेवाली प्रकृतियोंका वर्णन समाप्त हुआ। गुणस्थानों में उदयसे व्युच्छिन्न होनेवाली प्रकृतियोंकी संख्याका निरूपण[मूलगा०१८] पण णव इगि सत्तरसं अड पंच चउर छक छच्चव ।
इगि दुग सोलह तीसं बारह उयए अजोयंता ॥२७॥ पहले मिथ्यात्वगुणस्थानसे लेकर चौदहवें अयोगिकेवली तक क्रमसे पाँच, नौ, एक, सत्तरह, आठ, पाँच, चार, छह, छह, एक, दो, सोलह, तीस और बारह प्रकृतियाँ उदयसे व्युच्छिन्न होती हैं ॥२७॥ कुछ विशेष प्रकृतियोंके उदय-विषयक नियम
"मिस्सं उदेइ मिस्से अविरयसम्माइचउसु सम्मत्तं । तित्थयराहारदुअं कमेण जोए पमत्ते य ॥२८॥
1. सं० पञ्चसं० ३, ३६ । 2.३, ३६-४०। 3. ३, ३७ ।
१. कर्मस्त. गा० २३ । २. कर्मस्तगा० २४ । गोक. १०२। केवलमुत्तरार्धे साम्यम् । ३. कर्मस्त० गा०४ । गो० क. २६४ । द ब बंधो संतो।
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