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________________ १८० पञ्चसंग्रह ईर्यापथमेकं सातावेदनीयं बध्नन् मोहं विना सप्त कर्माणि वेदयति, उदयरूपेणानुभवति मुनिः शेषः । क्षीणकषाये तु ज्ञान-दर्शनावरणान्तराय-नाम-गोत्र- पञ्चकानां उदीरणां करोति क्षीणकषायो मुनिः । आवलिकाशेषकाले भजनीयं नाम गोत्रयोरुदीरणां करोति पञ्चक-द्विकयोर्विकल्पा भजनीयमिति । उपशान्ते तु ज्ञान-दर्शनावरणान्तराय - नाम- गोत्राणां पञ्चानामुदीरणा भवति ॥२२८|| ईर्यापथ आम्रवसे संयुक्त उपशान्तमोही और क्षीणमोही जीव मोहकर्मको छोड़कर शेष सात कर्मों का वेदन करते हैं और पाँच कर्मोंकी उदीरणा करते हैं । तथा सयोगिकेवली जिन चार अघातिया कर्मोंका वेदन करते हैं और नाम वा गोत्र इन दो कर्मोंकी उदीरणा करते हैं । किन्तु ईर्याथ आस्रवसे संयुक्त उपशान्तकषायी जीव संसारगत दशा में भजनीय है अर्थात् कोई प्राप्त हुई बोधिका विनाश कर देता है और कोई नहीं भी करता है ||२२८|| [ मूलगा० ३४ ] [ छप्पंचमुदीरंतो बंधइ सो छव्विहं तणुकसाओ । अविहमणुभवतो सुकझाणे दहइ कम्मं ॥२२६॥ तनुकषायः सूक्ष्मसाम्परायो मुनिः पट्-पञ्चकर्माणि उदीरयन् मोहाऽऽयुभ्यां विना पण्णां कर्मणां ६, आयुर्मोहवेदनीय त्रिकं विना पञ्चानां कर्मणां उदीरणां करोति ५ । स सूक्ष्मसाम्परायी पविधं मोहाऽऽयुर्द्विकं विना षट् प्रकारं कर्म बध्नाति । स मुनिः सूक्ष्मसाम्परायो ज्ञानावरणाद्यष्टविधं कर्म उदयरूपेण भुङ्क्ते । स मुनिः प्रथमशुक्लध्यानेन सूक्ष्मलोभं कर्म दहति भस्मीकरोति ॥ २२६॥ सूक्ष्मसाम्परायगुणस्थानवर्ती जीव छह अथवा पाँच प्रकार के कर्मोंकी उदीरणा करते हुए भी मोह और आयुके विना शेष छह प्रकारके कर्मोंका बन्ध करते हैं । तथा वही सूक्ष्मसाम्परायसंयत आठों ही कमका अनुभवन करते हुए शुक्लध्यान में मोहकर्मको जलाता है ॥२२६॥ [ मूलगा० ३५] अट्ठविहं वेयंता छन्विहमुदीरंति सत्त बंधंति । अणिट्टी यणिट्टी अप्पमत्तो य तिण्णेदे ॥ २३०॥ अनिवृत्तिकरणः अपूर्वकरणः अप्रमत्तश्चैते त्रयः ज्ञानावरणादीन्यष्टौ कर्माणि वेदयन्तः उदयरूपेणानुभवन्ति ८ । आयुर्वेद्यद्वयं विना पट्कर्माणि ( पट्कर्मणां ) उदीरणां कुर्वन्ति ६ । आयुर्विना सप्तकर्माणि बध्नन्ति ७ ॥ २३०॥ अनिवृत्तिकरणसंयत, अपूर्वकरणसंयत और अप्रमत्तसंयत, ये तीनों ही गुणस्थानवर्ती जीव आठों ही कर्मोंका वेदन करते हुए आयु और वेदनीयको छोड़कर शेष सात कर्मोंका बन्ध करते हैं ॥२३८॥ विशेषार्थ- - उक्त गाथामें जो अप्रमत्त संयत के भी आयुकर्मके वन्धका अभाव बतलाया गया है, सो उसका अभिप्राय यह है कि अप्रमत्तसंयत जीव आयुकर्मके वन्धका प्रारम्भ नहीं करता है, किन्तु यदि प्रमत्तसंयतने आयुकर्मका बन्ध प्रारम्भ कर रक्खा है, तो वह उसे बाँधता है, अन्यथा नहीं | [ मूलगा० ३६ ] बंधंति य वेयंति य उदीरंति य अड्ड अड्ड अवसेसा | सत्तविहबंधगा पुण अट्टहमुदीरणे भजा ॥२३१॥ 1. सं० पञ्चसं० ४, ६४ | 2 सं० पञ्चसं ०४, ६५ । ३. सं० पञ्चसं० ४, ६६-६७ । १. शतक० ३५ । २ शतक० ३६ । ३. शतक० ३७ । परं तत्र पूर्वार्धे 'अवसेस विकरा वेयंति उदीरगावि अट्ठण्हं' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001937
Book TitlePanchsangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages872
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size21 MB
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