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________________ पञ्चसंग्रह अविरतगुणस्थानके अन्तमें दश प्रकृतियाँ बन्धसे व्युच्छिन्न होती हैं। विरताविरतके अन्तमें चार प्रकृतियाँ और प्रमत्तविरतके अन्तमें छह प्रकृतियाँ बन्धसे व्युच्छिन्न होती हैं। अप्रमत्तविरतके अन्तमें एक प्रकृति बन्धसे व्युच्छिन्न होती है ॥३१२॥ ७७ .६७ तित्थयर-मणुय-देवाऊहिं सह संजयसम्माइटिम्मि दे पम आहारदुगेण १५५३ ८१ " ५७ ८५ ७१ सह अप्पमत्ते ६६ । सह अप्पमत्ते ० ० ० ० तोर्थकरत्वेन मनुष्य देवायुभ्यां च सह असंयतसम्यग्दृष्टौ, देश-विरते प्रमत्ते, आहारकयुगेन सहाप्रमत्ते अ० दे० प्र० अ० . वि० १०४ ६१ बं० ७० ६७ ६३ ५६ अ० ४३ ५३ ५७ ६१ । बं० ७१ ८१ ८५ ८६ तीर्थकर, मनुष्यायु और देवायुके साथ असंयतसम्यग्दृष्टिगुणस्थानमें ७७ प्रकृतियाँ बंधती हैं, १० प्रकृतियाँ बन्धसे व्युच्छिन्न होती हैं। अबन्धप्रकृतियाँ ४३ हैं और ७१ प्रकृतियोंके बन्धका अभाव है। देशविरतगुणस्थानमें बन्धसे व्युच्छिन्न होनेवाली प्रकृतियाँ ४ हैं, बन्धके योग्य ६७ हैं, अबन्धप्रकृतियाँ ५३ हैं और ८१ प्रकृतियोंके बन्धका अभाव है। प्रमत्तविरतगुणस्थानमें बन्धसे व्युछिन्न होनेवाली प्रकृतियाँ ६ हैं, बन्धके योग्य ६३ हैं, अबन्धप्रकृतियाँ ५७ हैं और ८५ प्रकृतियोंके बन्धका अभाव है। अप्रमत्तविरतमें आहारकद्विकके साथ बन्धयोग्य प्रकृतियाँ ५६ हैं, बन्धसे व्युछिन्न होनेवाली प्रकृति १ है, अबन्धप्रकृतियाँ ६१ हैं और ८६ प्रकृतियोंके बन्धका अभाव है। अब अविरत आदि चार गुणस्थानों में बन्धसे व्युच्छिन्न होनेवाली प्रकृतियों को गिनाते हैं विदियकसायचउकं मणुयाऊ मणुयदुगय उरालं । तस्स य अंगोवंगं संघयणाई अविरयस्स ॥३१३॥ 'तइयकसायचउक्क विरयाविरयम्हि बंधवोच्छिण्णो। 'साइयरमरइ सोयं तह चेव य अथिरमसुहं च ॥३१४॥ अजसकित्ती य तहा पमत्तविरयम्हि बंधवोच्छेदोके । देवाउयं च एवं पमत्तइयरम्हि णायव्वो ॥३१॥ प्रत्याख्यानचतुष्कं ४ मनुष्यायुः १ मनुष्यगति-तदानुपूये द्वे २ औदारिकं १ औदारिकाङ्गोपाङ्ग १ वज्रवृषभनाराचमाद्यसंहननं १ । एवं दश प्रकृतीनां असंयतगुणस्थाने विच्छेदः १० प्रत्याख्यानतृतीयचतुष्कं ४ देशसंयमे बन्धव्युच्छिन्नम् । असातं १ अरतिः १ शोकः १ अस्थिरं १ अशुभं १ अयशस्कीर्तिः १ 1. सं० पञ्चसं० ४, 'द्वितीयक्रषायचतुष्का' इत्यादि गद्यभागः (पृ० १२६)। 2. ४, 'चतुर्थी तृतीय ___ कषायाणां' इत्यादि गद्यभागः (पृ० १२६)। 3. ४, 'शोकारत्य' इत्यादि गद्यभागः (पृ० १२६)। कैब बोच्छिण्णो। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001937
Book TitlePanchsangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages872
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size21 MB
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