SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 492
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सप्ततिका दर्शनावरणकर्मको चक्षुदर्शनावरणादि चारों प्रकृतियोंका उदय उनकी उदयव्युच्छित्ति होने तक बराबर बना रहता है । तथा जीवके सुप्त दशामें पाँचों निद्राओंमेंसे किसी एक प्रकृतिका उदय रहता है। इस प्रकार जागृत दशामें चार प्रकृतिक उदयस्थान और सुप्त दशामें पाँच प्रकृतिक उदयस्थान जानना चाहिए ॥२८४॥ अव गुणस्थानों में दर्शनावरणके बन्धादिस्थानोंका निरूपण करते हैं मिच्छम्मि सासणम्मि य णव होंति बंध-संतेहिं । छब्बंधे णव संता मिस्साइ-अपुव्वपढमभायते ॥२८॥ मिथ्यादृष्टिसातादनयोर्दर्शनावरणस्य नव प्रकृतयो बन्धरूपाः ६ नव प्रकृतयः सत्त्वरूपाश्च भवन्ति । मिश्राद्यपूर्वकरणप्रथमभागान्तेषु गुणस्थानेषु स्त्यानगृद्धित्रयं विना पड्बन्धकेषु ६ दर्शनावरणस्य नव प्रकृतयः सत्वरूपाः भवन्ति ६ ॥२८५॥ मिथ्यात्व और सासादन गुणस्थानमें नौ प्रकृतिक बन्धस्थान और नौ प्रकृतिक सत्त्वस्थान होते हैं । मिश्र गुणस्थानको आदि लेकर अपूर्वकरणके प्रथम भागपर्यन्त छहप्रकृतिक बन्धस्थान और नौप्रकृतिक सत्त्वस्थान होते हैं ॥२८॥ [मिच्छे सासणे य] ४ ५ 1मिस्साइअपुवकरणपढमसत्तमभायं जाव ४ ५। मिथ्यादृष्टि-सासादनयोः उ० ४ ५ मिश्राद्येष्वपूर्वकरणद्वयप्रथमसप्तमभागं यावत् उ० ४ ५। बंध ६ मिथ्यात्व और सासादनमें उ० ४ ५ मिश्रसे लेकर अपूर्वकरणके प्रथम सप्तम भाग तक स०६६ ४५ इस प्रकार बन्धादिस्थानोंकी रचना जानना चाहिए । ६६ 'चउबंधयम्मि दुविहापुव्वणियट्टीसु सुहुमउवसमए । णव संता अणियट्टी-खवए सुहुमखवयस्मि छच्चेव ॥२८६॥ चतुर्विधबन्धकेषु द्विविधापूर्वकरणानिवृत्तिकरणसूचमसाम्परायोपशमकेषु नव प्रकृतयः सवरूपाः ।। तथाहि-अपूर्वकरणस्य द्वितीयभागादि-षड्भागान्तस्योपशम-क्षपकश्रेणिद्वयगतस्य दर्शना तुबन्धकस्य ४ दर्शनावरणप्रकृतयो नव सत्वरूपाः ६ भवन्ति । अनिवृत्तिकरण-सूचमसाम्पराययोदर्शन चतुर्बन्धकयोरुपशमश्रेण्णोर्नव प्रकृतयः सत्वरूपाः सन्ति । अनिवृत्तिकरण-सूचमसाम्परायक्षपकश्रेण्योश्चतुर्बन्धकयोः स्त्यानत्रिकं विना पट प्रकृतयः सत्त्वरूपाः स्युः ६ ॥२६॥ दोनों प्रकारके अर्थात् उपशामक और क्षपक अपूर्वकरण तथा अनिवृत्तिकरण गुणस्थानमें, उपशामक सूक्ष्मसाम्परायमें चारप्रकृतिक बन्धस्थान और नौप्रकृतिक सत्त्वस्थान होते हैं। अनिवृत्तिकरण क्षपक और सूक्ष्मसाम्पराय क्षपकमें चारप्रकृतिक बन्धस्थान और छहप्रकृतिक सत्त्वस्थान होते हैं ॥२८६|| 1. सं० पञ्चसं० ५, मिश्राद्ये' इत्यादिगद्यभागः ( पृ० १६७)। 2. ५, ३११-३१२ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001937
Book TitlePanchsangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages872
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy