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________________ २२७ मनुष्यगतौ सर्वाः प्रकृतयो १२० बन्धयोग्या भवन्ति । तत्र तीर्थंकरत्वाऽऽहारकद्वयहीनाः अन्यः सप्तदशोत्तरशतप्रकृतीमिथ्यादृष्टिमनुष्या बघ्नन्ति ११७ । मिथ्यात्वव्युच्छिन्नप्रकृतिभिः १६ हीनास्ताः सालादनस्थमनुष्या बध्नन्ति १०१ । सासादनव्युच्छिन्न प्रकृति २५ मनुष्यगति-मनुष्यगत्यानुपूव्यौदा रिकौदारिकाङ्गोपाङ्गचतुष्क-वज्रवृषभनाराचसंहनन- मनुष्य देवायुष्कद्वय रहितास्ताः पूर्वोक्ता मिश्रगुणस्थानस्थमनुष्या एकोनसप्ततिं प्रकृतीर्बघ्नन्ति ६६ । ता एकोनसप्तति तीर्थकर देवायुर्युता एकसप्ततिप्रकृतीरसंयत-मनुष्या बनन्ति । एता द्वितीयकषायचतुष्केन विना सप्तषष्टिं प्रकृती देशसंयतमनुष्या बनन्ति ६७ । प्रमसादिगुणस्थानेषु गुणस्थानोक्तवत् । तथाहि--प्रमत्ते ६३ अप्रमत्ते ५६ भपूर्वकरणे ५८ अनिवृत्तिकरणे २२ सूक्ष्मसाम्पराये १७ उपशान्ते १ क्षीणे १ सयोगेषु च १ प्रकृतीः पर्याप्ता मनुष्या बध्नन्ति । तथा तेनैव पर्याप्तमनुष्योक्तप्रकारेण प्रकृती: पर्याप्ता मानुष्यः १२० बध्नन्ति । मिथ्यादृष्टिलब्ध्यपर्याप्ततिर्यग्गतिवत् मनुष्यलब्ध्यपर्याप्ताः १०६ बध्नति ॥३३८३ - ३४२३॥ पर्याप्तमानुष्य बन्धयोग्याः १२० । लब्ध्यपर्याप्त मनुष्येषु पर्याप्तमनुप्यरचना शतक मि० सू० ० मि० सा० १६ ३१ ११७ १०१ ३ १६ अ० दे० प्र० अ० * ४ ६ १ ६ ६ ७१ ६७ ६३ ५६ ५१ ४६ ५३ ५७ ६१ भ० ਸ ३६ ५ ५८ २२ ६२ ६० १६ १७ ง १०७ ११६ ११६ ११६ १२० ง ง ० मनुष्यगति में सभी अर्थात् १२० प्रकृतियाँ बँधती हैं । उनमें से मिथ्यादृष्टि मनुष्य तीर्थकर और आहारिकद्विकसे हीन शेष ११७ प्रकृतियोंका बन्ध करते हैं । सासादनसम्यग्दृष्टि मनुष्य मिथ्यात्वमें विच्छिन्न होनेवाली १६ प्रकृतियोंसे हीन शेष १०१ का बन्ध करते हैं। मिश्रगुणस्थानवर्ती मनुष्य सासादनमें विच्छिन्न होनेवाली २५ प्रकृतियोंसे, तथा मनुष्यद्विक, औदारिकद्विक, आदि संहनन, मनुष्यायु और देवायुसे रहित शेष ६६ प्रकृतियोंका बन्ध करते हैं। असंयतसम्यग्दृष्टि मनुष्य तीर्थंकर और देवायु सहित उक्त प्रकृतियोंका अर्थात् ७१ प्रकृतियोंका बन्ध करते हैं । देशसंयत मनुष्य द्वितीय कपायचतुष्कके विना शेष ६५ प्रकृतियों का बन्ध करते हैं । प्रमत्तादि ऊपर के गुणस्थानवर्त्ती मनुष्यों में ओघके समान प्रकृतियोंका बन्ध जानना चाहिए । सामान्य मनुष्यों के समान पर्याप्त मनुष्य और मनुष्यनियाँ प्रकृतियोंका बन्ध करते हैं । तथा अपर्याप्त तिर्यञ्चके समान अपर्याप्त मनुष्य १०६ प्रकृतियोंका बन्ध करते हैं ।। ३३८३ - २४२३॥ ( देखो संदृष्टिसंख्या १८ ) О १०६ । ० Jain Education International अब देवगतिमें प्रकृतियोंके बन्धादिका निरूपण करते हैं— हुमाहार अपुण्णवे उव्वियछक्कणिरयदेवाऊ ॥३४३॥ साहारण - वियलिंदियरहिया बंधंति देवाओ । मि० १०३ सा० ६६। आसाय छिणपयडीणराउ ताउ मिस्सा दु ॥ ३४५॥ तित्थयरणराउजुया अजई देवा दु बंधंति । मि० ७०।२०७२ ! उ० ॥१०४॥ तित्यरूणे मिच्छा सासाणसम्मो दु थावरादावं ||३४४ ॥ गिजाइ हुंडयमिच्छासंपत्तर हियाओ । For Private & Personal Use Only ० क्षी० स० ० १ भ० O www.jainelibrary.org
SR No.001937
Book TitlePanchsangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages872
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size21 MB
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