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________________ २२६ पञ्चसंग्रह एवं तिरियपंचिंदिय पुण्णा बंधंति ताओ पयडीओ ॥३३७॥ पजत्ता णियमेणं पंचिंदियतिरिक्खिणीओ य । तित्थयराहारदुयं वेउव्वियछक्कणिरयदेवाऊ ॥३३॥ तेहि विणा बंधाओ तिरियपंचिंदियअपजत्ता । ।१०६। एवं भमुना प्रकारेण ताः सप्तदशोत्तरशतप्रकृतीः पञ्चेन्द्रियपर्याप्तास्तिर्यञ्चो बन्नन्ति । तथा पञ्चेन्द्रियपर्याप्ततिरिश्च्यो योनिमत्तिर्यञ्चः एतावत् ११७ प्रकृतीबंध्नन्ति ॥ पर्याप्तपन्चेन्द्रिययोनिमतियंग-रचनायन्त्रम्-- मि. सा. मि० भ० दे० १६ ३१ . ४ ४ . . • १६४८ ४७ ५१ तीर्थकरत्वाऽऽहारकद्वयं ३ देव-नरकगति-तदानुपूर्व्य-चैक्रियिक-वैक्रियिकाङ्गोपाङ्गवक्रियिकषटकं ६ नरकायुः१देवायुः चेत्येकादशप्रकृतिभिस्ताभिविना शेषनवोत्तरशतप्रकृतिबन्धका लब्ध्यपर्याप्तपञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चो भवन्ति ॥३३६३-३३८३॥ अलब्धिपञ्चेन्द्रियतिर्यग्रचनायन्त्रम्-१० इसी प्रकार तिर्यश्च पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीव भो ऊपर बतलाई गई सामान्य तिर्यश्चोंवाली उन्हीं प्रकृतियोंको बाँधते हैं। इसी प्रकार पर्याप्त पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चनी भी नियमसे उन्हीं प्रकृतियां को बाँधती हैं । तिर्यश्च पंचेन्द्रिय अपर्याप्त जीव तीर्थकर, आहारकद्विक वैक्रियिकषट्क नरकायु और देवायुके विना शेष १०६ प्रकृतियोंका बन्ध करते हैं ॥३३६३-३३८३॥ अब मनुष्यगतिमें प्रकृतियोंके बन्धादिका निरूपण करते हैंमणुयगईए सव्वा तित्थयराहारहीणया मिच्छा ॥३३६।। १२० मि० ११७॥ मिच्छम्मि च्छिण्णपथडी-ऊणाओ आसाय । ।१०। आसायछिण्णपयडीमणुसोरालय आइसंघयणं ॥३४॥ णर-देवाऊरहिया मिस्सा बंधंति ताओ मणुयाऊ । तित्थयर-सुराउजुआ ताओ बंधंति अजइमणुया दु ॥३४१॥ विदियकसाएहिं विणा ताओ मणुया दु देसजई। ६७। पमत्तादिसु ओघो जि होज मणुया दु पजत्ता ॥३४२॥ तह मणुय-मणुसिणीओ अपुण्णतिरिया व णरअपजत्ता। . . * द. 'तिरियव्व' पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001937
Book TitlePanchsangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages872
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size21 MB
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