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________________ शतक २२५ तमस्तमा अर्थात् महातमःप्रभा पृथिवीके नारकी संक्लिष्ट भाव होनेसे तीर्थङ्कर और मनुष्यायुके विना नारकसामान्यके बँधनेवाली शेष ६६ प्रकृतियोंको बाँधते हैं। उसी पृथिवीके मिथ्यादृष्टि नारकी मनुष्यद्विक और उच्चगोत्रके विना शेष ६६ प्रकृतियोंको बाँधते हैं। तथा वहींके सासादनसम्यग्दृष्टि नारकी तिर्यगायु, मिथ्यात्व, नपुंसकवेद, हुंडकसंस्थान और सृपाटिकासंहनन; इन पाँच प्रकृतियोंके विना शेष ६१ प्रकृतियोंका बन्ध करते हैं। वहाँके मिन और असंयतगुणस्थानवर्ती नारकी तिर्यगायुके विना तथा सासादनमें व्युच्छिन्न होनेवाली प्रकृतियोंके विना, तथा मनुष्यद्विक और उच्चगोत्र सहित शेष ७० प्रकृतियोंका बन्ध करते हैं ॥३३०-३३२३॥ (देखो संदृष्टिसंख्या १६) अव तिर्यग्गतिमें प्रकृतियोंके बन्धादिका निरूपण करते हैं तित्थयराहारदुगूणाओ बंधंति बंधपयडीओ ॥३३३॥ तिरिया तिरियगईए मिच्छाइट्ठी वि इत्तिया चेव । 1११७ ताओ मिच्छाइट्ठी-वोच्छिण्णपयडि विहीणाओ ॥३३४॥ सासणसम्माइट्ठी तिरिया बंधंति णियमेण । १०१। आसायछिण्णपयडी मणुसोरालदुग आइसंघयणं ॥३३॥ णरदेवाऊ-रहिया मिस्सा बंधंति ताओ तिरिया हु । ६१। ताओ देवाउजुआ अजई तिरिया दु बंधंति ॥३३६॥ ७०॥ बिदियकसाएहिं विणा ताओ तिरिया उ देसजई । अथ तिर्यग्गयां बन्धप्रकृतिभेदं गाथाषटकेनाऽऽह-[ 'तित्थयराऽऽहारदुगूणाओ' इत्यादि । तिर्यग्गतो बन्धप्रकृतिराशि १२० मध्यात्तीर्थकरत्वाऽऽहारकद्वयं परिहृत्य शेपबन्धयोग्यप्रकृतयः सप्तदशोत्तरं ११७ इत्येताततीः प्रकृतीमिथ्यादृष्टयस्तिर्यञ्चो बध्नन्ति । ताः सप्तदशोत्तरशतप्रकृतयः ११७ मिथ्याष्टिव्युच्छिन्नप्रकृति १६ विहीना इत्येकोत्तरशतप्रकृतीः १०१ सासादनसम्यग्दृष्टितिर्यञ्चो बध्नन्ति नियमेन । सासादनव्युच्छिन्नप्रकृतिपञ्चविंशतिकं २५ मनुष्यगति-मनुप्यगत्यानुपूर्व्यद्विकं २ औदारि-कशरीरौदारि-]काङ्गोपाङ्गद्वयं २ वज्रवृपभनाराचसंहननं मनुप्यायुः १ देवायुष्कं १ चेति द्वात्रिंशत्कं प्रकृतिभिविहीनास्ता: पूर्वोक्ताः १०१ एवमेकोनसप्ततिप्रकृतीमिश्रगुणस्थानका स्तियंञ्चो बध्नन्ति । ता मिश्रोक्ता ६६ देवायुयुक्ताः सप्तति प्रकृतीः ७० असंयतसम्यग्दृष्टयस्तियंञ्चो बध्नन्ति ॥३३२३-३३६॥ तिर्यग्गतिमें मिथ्यादृष्टि तिर्यंच तीर्थकर और आहारकद्विकके विना शेष उतनी ही अर्थात् ११७ बन्धप्रकृतियोंको बाँधते हैं। उनमेंसे मिथ्यात्व गुणस्थानमें व्युच्छिन्न होनेवाली १६ प्रकृतियोंके विना शेष १०१ प्रकृतियोंको सासादनसम्यग्दृष्टि तिथंच नियमसे बाँधते हैं। सासादनमें व्युच्छिन्न होनेवाली २५ प्रकृतियोंके, तथा मनुष्यद्विक, औदारिकद्विक,आदि संहनन, मनुष्यायु और देवायुके विना शेष रहीं ६६ प्रकृतियोंको मिश्रगुणस्थानवर्ती तिर्यंच बाँधते हैं। उनमें एक देवायुको मिलाकर ७० प्रकृतियोंको असंयतगुणस्थानवर्ती तियेच बाँधते हैं। द्वितीय अप्रत्याख्यानावरणकपायचतुष्कके विना शेष ६६ प्रकृतियोंको देशव्रती तियच बाँधते हैं ॥३३२३-३३६।। (देखो संदृष्टिसंख्या १७) २१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001937
Book TitlePanchsangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages872
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size21 MB
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