SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 291
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ૨૨ पञ्चसंग्रह एवं प्रथम-द्वितीय-तृतीयपृथ्वीषु धर्मा-वंशा-मेघानरकत्रये एताः सास्वादनव्युच्छिन्नाः प्रकृतयः २५ चतुषु गुणस्थानेषु पूर्वोक्तप्रकारेण ज्ञातव्याः। नवरि किञ्चिद्विशेषः-असंयतसम्यग्दृष्टिस्तीर्थकरत्वं न बध्नातीति अज्जनादित्रये तीर्थकरं विना...[घर्मादि-1 ग्रयवत् । मि० सा० मि० अ० घोडिनर ४ २५० १० १०० १६७०७२ मि० सा० . मि० अ० । २५ १तत्र अञ्जनादिश्रये ५०० १६७० पोड ४ . ३० गुणा सासादनमें बन्धसे व्युच्छिन्न होनेवाली २५ प्रकृतियाँ नारकसामान्यो गुणस्थानवत् जानना। इसी प्रकार पहली, दूसरी और तीसरी पृथिवीके नारकियोंके वहाँ ही गुणस्थानोंकी बन्धरचना जानना चाहिए। इसी प्रकार चौथी पाँचवीं और छट्ठी पृथिव्या असरकियोंकी बन्ध रचना है। उनके चारों हो गुणस्थानों में वे ही बन्धादि-सम्बन्धी प्रकृतियों वशेषता केवल यह है कि उन पृथिवियोंका असंयतसम्यग्दृष्टि नारकी तीर्थङ्कर प्रकृतिककया गयहीं करता है। उन पृथिवियोंके चारों गुणस्थानोंमें बन्ध-योग्य प्रकृतियाँ क्रमशः १००, ६ और ७१ हैं। अब सातवें नरकमें प्रकृतियोंके बन्धादिका निरूपण करते हैं सामण्णणिरयपयडी तित्थयर-णराउ-रहियाऊ । बंधंति तमतमाए णेरइया संकिलिट्ठभावेण ॥३३ णरदुयउच्चूणाओ ताओ तत्थेव मिच्छदिट्ठीया . ।६। तिरियाऊ मिच्छ संढय हुंडासंपत्तरहियपयंडीओ ॥३३१॥ ताओ तत्थ य णिरया सासणसम्मा दु बंधंति । 18 तिरियाउऊण-सासण-वोच्छिण्णपयडिविहीणाओ।२३२॥ णरदुयउच्चजुयाओ मिस्सा अजई वि बंधंति । १०। तमस्तमःप्रभानरके सप्तमे नारकास्तीर्थकरत्व-मनुष्यायुभ्यां रहिताः सामान्यनारकोक्तप्रकृतीः १६ बध्नन्ति [ संक्लिष्टभावेन । तत्र माघव्यामेव नवनवति-प्रकृतीमनुष्यगति-मनुष्यानुपूर्योच्चैर्गोत्रत्रिकोनाः ३६ मिथ्यादृष्टयो बध्नन्ति । ताः षण्णवतिप्रकृतयः १६ तिर्यगायुर्मिथ्यात्व-षण्ढवेद-हुण्डक-संस्थानाऽसम्प्रामसपाटिकासंहननपञ्चप्रकृतिरहिता इत्येकनवतिप्रकृतीस्तत्र नारकोद्भवाः सासादनसम्यग्दृष्टयो बध्नन्ति ११ तियगायुरूना सास्वादनस्य व्युच्छिन्नप्रकृति २४ विहीनास्ता: सास्वादनोक्ता मनुष्यगति-मनुष्यगत्यानुपूर्योच्चैर्गोत्रयुक्ता ' इति सप्ततिप्रकृतीमिश्रगुणस्थानवर्तिनोऽसंयतसम्यग्दृष्टयश्च बध्नन्ति ७० माघव्याम् ॥३३०-३३२३॥ इति नरकगतिः समाप्ता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001937
Book TitlePanchsangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages872
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy