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________________ शतक २२३ अब सूत्रकारके द्वारा सूचित अर्थका भाष्यकार व्याख्या करते हैं इगि-विगलिंदियजाई वेउव्वियछक्कणिरयदेवाऊ ।। आहारदुगादावं थावर सुहुमं अपुण्ण साहरणं ॥२२६।। तेहि विणा णेरइया बंधंति य सव्वबंधपयडीओ। १०१॥ ताओ वि तित्थयरूणा मिच्छादिट्ठी दुणियमेण ॥३२७॥ कार ।१००। मिथयराउंसयवेयं हुंडमसंपत्तसंघयणं । एयरया विणा ताओ सासणसम्मा दु णेरइया ॥३२८॥ ।६। । अओ मिछण्णपयडी णराउरहिया उ ताओ मिस्सा दु । सणसम् ७० तिराउजुया अविरयसम्मा दुणेरइया ॥३२६॥ म ।७२। दित्रये तीर्थकरतादयकसाएहि आप प्रकृतयः धर्मादित्रये बन्ध नरकगतौ गुण्देवाऊ-रात्य बन्धयोग्यप्रकृतीः प्रकाशयति-एकेन्द्रिय-विकलेन्द्रिगजातयः ४ नरकगतिः नरकगत्यानुपूर्वी देवर त्यानुपूर्वी वैक्रियिक वैक्रियिकाङ्गोपाङ्गमिति वक्रियिकषटकं ६ नारकायः देवायुः १ भाहारकद्विओ देवाउजु स्थावरं १ सूक्ष्मं १ अपर्याप्तं १ साधारणं १ एवमेकोनविंशति-प्रकृती १६ विना शेषाः स . हा बध्नन्ति १०१। ताभिरेकोनविंशत्या प्रकृतिभिर्विना एकोत्तरशतसर्वबन्धप्रकृती रका बना ...ता अपि प्रकृतयः धर्मादित्रये बन्धयोग्यमेकोत्तरशतम् १०१। अन्जना माघव्यां मनुष्यायुविना एकोनशतम् ११ । तत्र धर्मानरके ता एव पूर्वोक्ताः १०१ तीर्थकरवानाः शतप्रमिथ्यादृष्टिबंध्नाति १०० नियमेन । मिथ्यात्वं १ नपुंसकवेदः १ हण्डक १ असम्प्राप्तसृपाटिकासंहननं १ ताश्चतस्रः प्रकृतयो मिथ्यात्वे व्युच्छिन्नाः ४ । एताभिश्चतसृभिः प्रकृतिभिविना ताः प्रकृतीः सासादनसम्यग्दृष्टयो बध्नन्ति ६६ । ताः षण्णवतिः १६ प्रकृतयः सास्वादनस्य व्युच्छिन्नपञ्चविंशतिप्रकृति २५ नरायूरहिता इति सप्ततिप्रकृती: ७० मिश्रा मिश्रगुणस्थानवर्तिनो बध्नन्ति । एतास्तीर्थकरत्व-मनुष्यायुया युक्ताः ७२ अविरतसम्यग्दृष्टयो नारका बध्नन्ति ॥३२६-३२६॥ एकेन्द्रियजाति, विकलेन्द्रियजातित्रिक, वैक्रियिकपटक (वैक्रियिकशरीर, वैक्रियिक अङ्गोपाङ्ग, नरकगति, नरकगत्यापूर्वी, देवगति, देवगत्यानुपूर्वी) नरकायु, देवायु, आहारकद्विक, आतप, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारण; इन उन्नीस प्रकृतियोंके विना नारकी जीव शेष सर्व प्रकृतियोंका अर्थात् १०१ का बन्ध करते हैं। उनमें भी मिथ्यादृष्टि नारकी तीर्थङ्कर प्रकृतिके विना १०० प्रकृतियोंका नियमसे बन्ध करते हैं । सासादनसम्यग्दृष्टि नारकी मिथ्यात्व,नपुंसकवेद, हुण्डकसंस्थान और सृपाटिकासंहनन, इन चारके विना ६६ प्रकृतियोंका बन्ध करते हैं। सासादनगुणस्थानमें बन्धसे व्युच्छिन्न होनेवाली २५ प्रकृतियाँ और मनुष्यायु इन २६ के विना शेष ७० प्रकृतियोंका सम्यग्मिथ्याहृष्टि बन्ध करते हैं। अविरतसम्यग्दृष्टि नारकी तीर्थङ्कर और मनुष्यायुके साथ उक्त ७० प्रकृतियोंका अर्थात् ७२ का बन्ध करते हैं ॥३२६-३२६॥ (देखो संदृष्टिसंख्या १५) आसाय छिण्णपयडी पढमाविदियातिदियासु पुढदीसु एवं चउसु वि गुणेसु । एवं चउत्थ-पंचमिछट्ठी-णेरइया। ताओ चउसु वि गुणेसु । वरि तित्थयरं असंजदोण बंधेद १००1४६७०७१। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001937
Book TitlePanchsangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages872
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size21 MB
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