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________________ २२२ पञ्चसंग्रह 'अथवा सर्वोऽप्यं प्रकृतीनां बन्धः सान्तो ज्ञातव्यो भन्यानाम्, अनन्तश्च ज्ञातव्योऽभव्यानामिति' । अर्थात् भव्योंकी अपेक्षा सभी प्रकृतियोंका बन्ध सान्त है। किन्तु अभव्योंकी अपेक्षा अनन्त जानना चाहिए, क्योंकि उनके कभी भी किसी प्रकृतिका अन्त नहीं होता। दूसरे पाठका अर्थ गो० कर्मकाण्डके टीकाकारने इस प्रकार किया है 'बन्धस्यान्तो व्युच्छित्तिः। अनन्तः बन्धः। चशब्दादबन्धश्चोक्तः।' बन्धका अन्त यानी व्युच्छित्ति, अनन्त यानी बन्ध और गाथा-पठित 'च' शब्दसे अबन्ध जानना चाहिए। शतक प्रकरणके संस्कृत टीकाकारने इस दूसरे पाठका अर्थ इस प्रकार किया है 'यत्र गुणस्थाने यासां प्रकृतीनां बन्धस्यान्त उक्तस्तत्र तासां बन्धस्यान्तस्तत्र भावस्तदुत्तरत्राभाव इत्येवंलक्षणो ज्ञातव्यः । शेषाणां त्वनन्तस्तदुत्तरत्रापि भावलक्षणो ज्ञातव्यः । यथा पोडरा प्रकृतीनां मिथ्यादृष्टौ बन्धस्यान्तः शेषस्य स्वेकोत्तरशतस्यानन्तस्तदुत्तरत्रापि गमनात् । एवमुत्तरत्र गुणस्थानेष्वप्यन्तानन्तभावना कार्या। अर्थात् जिस गुणस्थानमें जिन प्रकृतियोंके बन्धका अन्त कहा है, वहाँ तक उनका सद्भाव है और आगे उनका असद्भाव है। तथा जहाँपर जिन प्रकृतियोंका अन्त या असद्भाव है, वहाँपर शेष प्रकृतियोंका 'अनन्त' अर्थात् अन्तका अभाव यानी सद्भाव है। ऐसी अवस्थामें प्राकृतपञ्चसंग्रहके संस्कृत टीकाकार-द्वारा किया गया अर्थ विचारणीय है। उवसंतादि . १ . . ११६ ११६ ११६ १२० १४७ १४७ १४७ १४८ क्षी० स० उ० अ० ११६ १२० १४७ १४७ १४७ १४८ इति गुणस्थानेषु प्रकृतीनां बन्धस्वामित्वं समाप्तम् । उपशान्तकषाय, क्षीणकषाय और सयोगिकेवलीके एक साता-वेदनीयका बन्ध होता है, शेष ११६ प्रकृतियोंका अबन्ध है। सयोगिकेवलीके सातावेदनीयकी भी बन्धसे व्युच्छित्ति हो जाती है । अतः अयोगकेवलीके १२० का ही अबन्ध रहता है। अब मूलशतककार आदेश अर्थकी सूचनाके लिए उत्तर गाथासूत्र करते हैं[मूलगा० ४८] गइयादिएसु एवं तप्पाओगाणमोघसिद्धाणं । सामित्तं णायव्वं पयडीणं णाण (ठाण) मासेज ॥३२॥ अथ गत्यादिषु मार्गणासु प्रकृतीनां स्वामित्वं दर्शयति-['गइयादिएसु' इत्यादि । ] गत्यादिमागणासु एवं गुणस्थानोकप्रकारेण तत्प्रायोग्यानां गत्यादिमागणायोग्यानां गुणस्थानप्रसिद्धानां प्रकृतीनां स्वामित्वं ज्ञातव्यं ज्ञानमाश्रित्य श्रुतज्ञानमागर्म स्वीकृत्य ॥३२५॥ ___ इसी प्रकार गति, इन्द्रिय आदि चौदह मार्गणाओंमें उन उनके योग्य ओघसिद्ध प्रकृतियोंका स्वामित्व ऊपर बतलाये गये गुणस्थानों या बन्धस्थानोंके आश्रयसे लगा लेना चाहिए ॥३२५॥ १.शतक० ५१ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001937
Book TitlePanchsangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages872
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size21 MB
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