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________________ शतक विशेषार्थ - जो जीव केवल कुमार्गका उपदेश ही न देता हो, अपितु सन्मार्गके विरुद्ध प्रचार भी करता हो, सन्मार्ग पर चलनेवालोंके छिद्रान्वेषण और असत्य दोषारोपण करनेवाला हो, माया, मिथ्यात्व और निदान इन तीन शल्योंसे युक्त हो, जिसके व्रत और शीलमें अतिचार लगते रहते हों, पृथिवी रेखा के सदृश रोपका धारक हो, गूढ हृदय मायावी और शठशील हो, ऐसा जीव तिर्यगायुका बन्ध करता है । यहाँ पर अन्तिम तीनों विशेषण विशेषरूप से विचारणीय हैं। जिसके हृदयकी बातका पता कोई न चला सके, उसे गूढ़हृदय कहते हैं। जो सोचे कुछ और, तथा करे कुछ और उसे मायावी कहते हैं । जो मनमें कुटिलता रख करके भी वचनों से मधुरभाषी हो, उसे शठशील कहते हैं। ऐसा जीव तिर्यगायुका बन्ध करता है । अब मनुष्यायुके विशेष बन्ध-प्रत्ययोका निरूपण करते हैं [ मुलगा० २१] पयडीए। तणुकसाओ दाणरओ सील- संजम विहूणो । मज्झिमगुणेहिं जुत्तो मणुयाउ णिबंधए जीवों ॥२१० ॥ यः प्रकृत्या स्वभावेन मन्दकषायोदयः, चतुर्विधदानप्रीतिः, शीलैः संयमेन च विहीनः, मध्यमगुणैर्युक्तः, स जीवो मानुष्यायुर्ब्रध्नाति ॥ २९०॥ जो प्रकृतिसे ही मन्दकषायी है, दान देनेमें निरत है, शील-संयमसे रहित होकरके भी मनुष्योचित मध्यम गुणोंसे युक्त है, ऐसा जीव मनुष्यायुका बन्ध करता है ॥२१८॥ जो स्वभावसे ही शान्त एवं अल्प कषायवाला हो, प्रकृतिसे ही भद्र और विनीत हो, समय-समय पर लोकोपकारक कार्योंके लिए दान देता रहता हो, अप्रत्याख्यानावरण कषायके तीव्र उदय होनेसे व्रत-शीलादिके नहीं पालन कर सकने पर भी मानवोचित दया, क्षमा, आदि गुणोंसे युक्त हो, वालुकाराजिके सदृश रोषका घारक हो, न अति संक्लेश परिणामोंका धारक हो और न अति विशुद्ध भावोंका ही धारक हो, किन्तु सरल हो और सरल कार्य करनेवाला हो, ऐसा जीव मनुष्यायुकर्मका बन्ध करता है । अब देवायुके विशेष बन्ध-प्रत्ययका निरूपण करते हैं [ मूलगा० २२] अणुवय - महव्वएहि य बालतवाकामणिञ्जराए य । देवाउयं णिबंधइ सम्माहट्टी य जो जीवो ॥२११॥ १७१ यः सम्यग्दृष्टिर्जीवः स केवलसम्यक्त्वेन साक्षादणुव्रतैर्महाव्रतैर्वा देवायुबंध्नाति । यो मिथ्यादृष्टिर्जीवः स उपचाराणुव्रत महाव्रतैर्बालतपसा अकामनिर्जरया वा देवायुर्ब्रध्नाति ॥२११॥ अणुव्रतों, शीलतों और महाव्रतोंके धारण करनेसे, बालतप और अकामनिर्जराके करने से जीव देवायुका बन्ध करता है । तथा जो जीव सम्यग्दृष्टि है, वह भी देवायुका बन्ध करता है ॥२११॥ विशेषार्थ - जो पाँचों अणुव्रतों और सप्त शीलोंका धारक है, महाव्रतोंको धारण कर षड्जीव- निकायकी रक्षामें निरत है, तप और नियमका पालक है, ब्रह्मचारी है, सरागसंयमी है, अथवा बालतप और अकाम निर्जरा करनेवाला है, ऐसा जीव देवायुका बन्ध करता है । यहाँ बालतपसे अभिप्राय उन मिथ्यादृष्टि जीवोंके तपसे है जिन्होंने कि जीव-अजीवके स्वरूपको ही नहीं समझा है, आपा-परके विवेकसे रहित हैं और अज्ञानपूर्वक नाना प्रकारसे कायक्लेशको 1. सं० पञ्चसं० ४, ७८ | 2. ४, ७६ । १. शतक० २२ । २. शतक० २३ । +ब पयडीय | Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001937
Book TitlePanchsangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages872
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size21 MB
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