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________________ पञ्चसंग्रह सहन करते हैं । विना इच्छाके पराधीन होकर जो भूख-प्यासकी और शीत-उष्णादिको बाधा सहन की जाती है, उसे अकाम निर्जरा कहते हैं। कारागारमें परवश होकर पृथिवी पर सोनेसे, रूखे-सूखे भोजन करनेसे, स्त्रीके अभावमें विवश होकर ब्रह्मचर्य पालनेसे, सदा रोगी रहनेके कारण परवश होकर पथ्य-सेवन करने और अपथ्य-सेवन न करनेसे जो कर्मोकी निर्जरा होती है, उसे अकामनिर्जरा कहते हैं । इस अकामनिर्जरा और बालतपके द्वारा भी जीव देवायुका बन्ध करता है। जो सम्यग्दृष्टि जीव चारित्रमोहकमके तीव्र उदयसे लेशमात्र भी संयमको नहीं धारण कर पाते हैं, फिर भी वे सम्यक्त्वके प्रभावसे देवायुका बन्ध करते हैं। तथा जो जीव संक्लेश-रहित हैं, जलराजिके सदृश रोषके धारक हैं, और उपवासादि करने वाले हैं, वे भी देवायुका बन्ध करते हैं । यहाँ इतना विशेष जानना चाहिए कि सम्यक्त्वी और अणुव्रत-महाव्रतोंका धारक जीव कल्पवासी देवोंकी ही आयुका बन्ध करते हैं, जब कि अकामनिर्जरा करनेवाले प्रायः भवनत्रिक देवोंकी ही आयुका बन्ध करते हैं और बालतप करनेवाले यथासंभव सभी प्रकारके देवोंकी आयुका बन्ध करते हैं। अब नामकर्मके विशेष बन्ध-प्रत्ययोंका निरूपण करते हैं[मूलगा० २३] मण-वयण-कायवंको माइल्लो गारवेहिं पडिबद्धो+। असुहं बंधइ णामं तप्पडिवक्खेहिं सुहणामं ॥२१२।। यो मनोवचनकायैर्वक्रः, मायावी गारवत्रयप्रतिबद्धः, स जीवो नरकगति-तिर्यग्गत्याऽऽद्यशुभं नामकर्म बध्नाति । तत्प्रतिपक्षपरिणामो हि शुभं नामकर्म बध्नाति ॥२१२॥ जिसके मन-वचन-कायकी प्रवृत्ति वक्र हो, जो मायावी हो और तीनों गारवोंका धारक हो, ऐसा जीव अशुभ नामकर्मका बन्ध करता है और इनसे विपरीत कर्म करनेसे शुभ नामकर्मका बन्ध होता है ।।२१२॥ विशेषार्थ-जो मायाचारी है, जिसके मन-वचन-कायकी प्रवृत्ति कुटिल है, जो रस-गारव ऋद्धिगारव और सातगारव इन तीनों प्रकारके गारवा या अहंकारोंका धारक है, मूठे नाप-तौलके बाँट रखता है और हीनाधिक देता-लेता है, अधिक मूल्यकी वस्तुमें अल्प मूल्यकी वस्तु मिलाकर बेचता है, रस-धातु आदिका वर्ण-विपर्यास करता है, नकली बनाकर बेंचता है, दूसरोंको धोका देता है, सोने-चाँदीके जेवरोंमें खार मिलाकर और उन्हें असली बताकर व्यापार करता है, व्यवहारमें विसंवादनशील एवं झगड़ालू मनोवृत्तिका धारक है, दूसरोंके अंग-उपांगोंका छेदनभेदन करनेवाला है, दूसरोंकी नकल करता है, दूसरोंसे ईर्ष्या रखता है, और दूसरोंके देहको विकृत बनाता है, ऐसा जीव अशुभ नामकर्मका बन्ध करता है, किन्तु जो इनसे विपरीत आचरण करता है, सरल-स्वभावी है, कलह और विसंवाद आदिसे दूर रहता है, न्यायपूर्वक व्यापार करता है और ठीक-ठीक नाप-तौल कर देता लेता है, वह शुभ नामकर्मका बन्ध करता है। अब गोत्रकर्मके विशेष बन्ध-प्रत्ययोंका निरूपण करते हैं[मूलगा० २४] अरहंताइसु भत्तो गुत्तरुई पयणुमाण गुणपेही । बंधइ उच्चागोयं विवरीओ बंधए इयरं ॥२१३॥ यः अहंदादिषु भक्तः, गणधरायुक्ताऽऽगमेषु श्रद्धाऽध्ययनार्थविचार-विनयादिगुणदर्शी, स जीवः उच्चैर्गोत्रं बध्नाति । तद्विपरीतः नीचैर्गोत्रं बध्नाति ॥२१३॥ 1. सं० पञ्चसं० ४,८०। 2.४,८१ । १. शतक० २४ । २. शतक० २५ । +ब परिबद्धो । *द पढमाणु० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001937
Book TitlePanchsangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages872
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size21 MB
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