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________________ १७० पञ्चसंग्रह वाला, दूसरोंको हँसानेवाला, मनोरंजनके लिए दूसरोंकी हँसी उड़ानेवाला विनोदी स्वभावका जीव हास्यकर्मका बन्ध करता है । स्वयं शोक करनेवाला, दूसरोंको शोक उत्पन्न करनेवाला, दूसरोंको दुखी देखकर हर्षित होनेवाला जीव शोककर्मका बन्ध करता है। नाना प्रकारके क्रीड़ा-कुतूहलोंके द्वारा स्वयं रमनेवाला और दूसरोंको रमानेवाला, दूसरोंको दुखसे छुड़ानेवाला और सुख पहुँचानेवाला जीव रतिकर्मका बन्ध करता है। दूसरोंके आनन्दमें अन्तराय करनेवाला, अरति उत्पन्न करनेवाला और पापी जनोंका संसर्ग रखनेवाला जीव अरतिकर्मका बन्ध करता है। स्वयं भयसे व्याकुल रहनेवाला और दूसरोंको भय उपजानेवाला जीव भय कर्मका बन्ध करता है। साधुजनोंको देखकर ग्लानि करनेवाला, दूसरोंको ग्लानि उपजानेवाला और दूसरेकी निन्दा करनेवाला जीव जुगुप्सा कर्मका बन्ध करता है । इस प्रकार चारित्र मोहकर्मकी पृथक्-पृथक् प्रकृतियांका आस्रव करके बन्धप्रत्ययोंका निरूपण किया। अब सामान्यसे चारित्रमोहके बन्धप्रत्ययोंका निरूपण करते हैं जो व्रत-शील-सम्पन्न, धर्मगुणानुरागी, सर्वजगद्वत्सल साधुजनोंकी निन्दा-गर्दा करता है, धर्मात्माजनांके धर्म-सेवनमें विघ्न करता है, उनमें दोष लगाता है, मद्य, मांस मधुके सेवनका प्रचार करता है, दूसरोंको कषाय और नोकषाय उत्पन्न करता है, ऐसा जीव चारित्रगोहकर्मका तीव्र बन्ध करता है । इस प्रकार चारित्रमोहके बन्धप्रत्ययोंका निरूपण किया। ___ अब आयुकर्मके चार भेदों से पहले नरकायुकर्मके विशेष बन्ध-प्रत्ययोंका निरूपण करते हैं[मूलगा० १६]'मिच्छादिट्ठी महारंभ-परिग्गहो तिव्वलोह णिस्सीलो । _णिरयाउयं णिबंधइ पावमई रुद्दपरिणामो ॥२०॥ यो मिथ्यादृष्टिर्जीवो बह्वाऽऽरम्भ-बहुपरिग्रहः, तीव्राऽनन्तानुबन्धिलोभः, निःशीलः शील-रहितो लम्पटः, पापकारणबुद्धिः रौद्रपरिणामः स जीवो नरकायुबंध्नाति ॥२०॥ मिथ्यादृष्टि, महारम्भी, महापरिग्रही, तीव्रलोभी, निःशीली, रौद्रपरिणामी और पापबुद्धि जीव नरकायुका बन्ध करता है ॥२०८।। . विशेषार्थ-जो जीव धर्मसे पराङ्मुख है, पापोंका आचरण करनेवाला है, जिस आरम्भ और परिग्रह में महा हिंसा हो, उसका करनेवाला है, जिसके व्रत-शीलादिका लेश भी न हो, भक्ष्य-अभक्ष्यका कुछ भी विचार न हो अर्थात् सद्य-मांसका सेवी और सवे-भक्षी हो, जिस परिणाम सदा रौद्रध्यानमय रहते हों और जिसका चित्त पत्थरकी रेखाके समान कठोर हो, ऐसा जीव नरकायुकर्मका बन्ध करता है। अब तिर्यगायुकर्मके विशेष बन्ध-प्रत्ययोंका निरूपण करते हैं[मूलगा० २०] उम्मग्गदेसओ सम्मग्गणासओ गूढहिययमाइल्लो । सढसीलो य ससल्लो तिरियाउ णिबंधए जीवों ॥२०६॥ य उन्मार्गोपदेशकः सन्मार्गविनाशकः, गूढ हृदयो मायावी शठशीलः, सशल्यः माया-मिथ्या निदानशल्यत्रयो जीवः स तिर्यगायुबंध्नाति ॥२०६॥ उन्मार्गका उपदेशक, सन्मार्गका नाशक, गूढहृदयी, महामायापी, परन्तु मुखसे मीठे वचन बोलनेवाला, शठशील और शल्ययुक्त जीव तिर्यगायुका बन्ध करता है ॥२०६॥ 1. सं० पञ्चसं० ४, ७६ । 2. ४, ७७ । १. शतक. २०। २. शतक. २१ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001937
Book TitlePanchsangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages872
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size21 MB
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