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________________ शतक अब मोहनीय कर्मके भेदोंमेंसे पहले दर्शनमोहके विशेष बन्ध-प्रत्ययोंका निरूपण करते हैं[मूलगा० १७] अरहंत-सिद्ध-चेहय-तब-सुद-गुरु-धम्म-संघपडिणीओ। बंधइ दंसणमोहं अणंतसंसारिओ जेण' ॥२०६॥ यो जीवोऽहसिद्ध-चैत्य-तपो-गुरु श्रुत-धर्म-संघप्रतिकूलः स तद्दर्शनमोहनीयं बध्नाति येनोदयागतेन जीवोऽनन्तसंसारी स्यात् ॥२०६॥ अरहंत, सिद्ध, चैत्य, तप, श्रुत, गुरु, धर्म और संधके अवर्णवाद करनेसे, जीव दर्शनमोह कर्मका बन्ध करता है, जिससे कि वह अनन्तसंसारी बनता है ।।२०६॥ विशेषार्थ-जिसमें जो अवगुण नहीं है, उसमें उसके निरूपण करनेको अवर्णवाद कहते हैं। वीतरागी अरहंतोंके भूख, प्यासकी बाधा बताना, रोगादिकी उत्पत्ति कहना, सिद्धोंका पुनरागमन कहना, तपस्वियोंमें दूषण लगाना, हिंसामें धर्मबतलाना,मद्य मांस, मधुके सेवनको निर्दोष कहना, निर्ग्रन्थ साधुको निर्लन और गन्दा कहना, उन्मार्गका उपदेश देना, सन्मार्गके प्रतिकूल प्रवृत्ति करना, धर्मात्मा जनोंमें दोष लगाना, कर्म-मलीमस असिद्धजनोंको सिद्ध कहना, सिद्धोंमें असिद्धत्वकी भावना करना, अदेव या कुदेवोंको देव बतलाना, देवों में अदेवत्व प्रकट करना, असर्वज्ञको सर्वज्ञ और सर्वज्ञको असर्वज्ञ कहना, इत्यादि कारणोंसे संसारके बढ़ानेवाले और सम्यक्त्वका घात करनेवाले दर्शनमोहनीयकर्मका तीव्र बन्ध होता है यह कर्म सर्व कर्मो में प्रधान है। इसे ही कर्म-सम्राट् या मोहराज कहते हैं और उसके तीनबन्धसे जीवको संसारमें अनन्तकाल तक परिभ्रमण करना पड़ता है। . अव मोहनीयकर्मके दूसरे भेद चारित्रमोहके विशेष बन्ध-प्रत्ययोंका निरूपण करते हैं[मूलगा० १८] तिव्वकसाओ बहुमोहपरिणओ रायदोससंसत्तो । बंधइ चरित्तमोहं दुविहं पि चरित्तगुणघादी ॥२०७॥ यस्तीव्रकपायनोकपायोदययुतः बहुमोहपरिणतः रागद्वेषसंसक्तः चारित्रगुणविनाशनशीलः, स जीवः कपाय-नोकपायभेदं द्विविधमपि चारित्रमोहनीयं बध्नाति ॥२०७॥ तीव्रकपायी, बहुमोहसे परिणत और राग-द्वेषसे संयुक्त जीव चारित्रगुणके घात करनेवाले दोनों ही प्रकारके चारित्रमोहनीयकर्मका बन्ध करता है ।।२०७॥ विशेषार्थ-चारित्रमोहनीय कर्मके दो भेद हैं-कषायवेदनीय और अकषायवेदनीय । राग-द्वेषसे संयुक्त तीव्र कषायी जीव कषायवेदनीयकर्मका और बहुमोहसे परिणत जीव नोकषायवेदनीयकर्मका बन्ध करता है। इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है-तीव्र क्रोधसे परिणत जीव क्रोधवेदनीयकर्मका बन्ध करता है । इसी प्रकार तीव्र मान, माया और लोभसे परिणत जीव मान, माया और लोभवेदनीयकर्मका बन्ध करता है । तीव्र रागी, अतिमानी, ईर्ष्यालु, अलोकभाषी, कुटिलाचरणी और पर-स्त्री-रत जीव स्त्रीवेदका बन्ध करता है। सरल व्यवहार करनेवाला एन्कषायी, मृदुस्वभावी, ईर्ष्या-रहित और स्वदार-सन्तोषी जीव पुरुषवेदका बन्ध करता है। तीवक्रोधी, पिशुन, पशुओंका बध-बन्धन और छेदन-भेदन करनेवाला, स्त्री और पुरुष दोनोंके साथ अनंगक्रीडा करनेवाला, व्रत, शोल और संयम-धारियोंके साथ व्यभिचार करनेवाला, पंचेन्द्रियोंके विषयोंका तीव्र अभिलाषी, लोलुप जीव नपुंसकवेदका बन्ध करता है । स्वयं हँसने 1. सं० पञ्चसं० ४, ७४ । 2. ४, ७५ । १. शतक. १८ । २. शतक. १४ । २२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001937
Book TitlePanchsangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages872
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size21 MB
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