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________________ १६८ पञ्चसंग्रह ज्ञान-दर्शन और उनके साधनोंमें प्रतिकूल आचरण, अन्तराय, उपघात, प्रदोष और निह्नव करनेसे, तथा असातना करनेसे यह जीव आवरणद्विक अर्थात् ज्ञानावरण और दर्शनावरण कर्मका प्रचुरतासे बन्ध करता है ॥२०४।। . विशेषार्थ-ज्ञानके, ज्ञानियोंके और ज्ञानके साधनोंके प्रतिकूल आचरण करनेसे, उनमें विघ्न करनेसे, उनका मूलसे घात करनेसे, उनमें दोष लगाने और ईर्ष्या करनेसे, उनका निह्नव (निषेध) और असातना (विराधना) करनेसे, अकालमें स्वाध्याय करनेसे, कालमें स्वाध्याय नहीं करनेसे, स्वयं संक्लेश करनेसे, दूसरेको संक्लेश उत्पन्न करनेसे, तथा दूसरे प्राणियोंको पीड़ा पहुँचानेसे ज्ञानावरण कर्मका भारी आस्रव होता है अर्थात् उनका स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध भारी परिमाणमें होता है । इसी प्रकार दर्शनगुण, उसके धारक और साधनोंके विषयमें प्रतिकूल आचरण करनेसे, विघ्न करनेसे उपघात, प्रदोष, निह्नव और असातना करनेसे, तथा आलसी जीवन बितानेसे, विषयोंमें मग्न रहनेसे, अधिक निद्रा लेनेसे, दूसरेकी दृष्टिमें दोष लगानेसे, दृष्टिके साधन उपनेत्र (चश्मा) आदिके चुरा लेने या फोड़ देनेसे और प्राणिवधादि करनेसे दर्शनावरणकर्मका तीव्र स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध होता है। अब वेदनीयकर्मके विशेष बन्ध-प्रत्ययोंका निरूपण करते हैं[मूलगा० १६]'भूयाणुकंप-वय-जोग उजओ खंति-दाण-गुरुभत्तो । __ बंधह सायं भूओ विवरीओ बंधए इयरं ॥२०॥ गतौ कर्मोदयाद् भवन्तीति भूताः प्राणिनः, तेषु प्राणिषु अनुकम्पा दया । व्रतानि हिंसाऽनृतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहेभ्यो विरतिः २ । योगः समाधिः, धर्मध्यान-शुक्लध्यानम् ३ तैर्युक्तः, क्रोधादिनिवृत्तिलक्षणया क्षान्त्या क्षमया, चतुर्विधदानेन, पञ्चगुरुभक्त्या च सम्पन्नः । स जीवः सातं सातावेदनीयं सुखरूपकर्मतीव्रानुभागं भूयो बध्नाति । तद्विपरीतस्तागसातं असातावेदनीयं कर्म बध्नाति ॥२०५॥ प्राणियों पर अनुकम्पा करनेसे, व्रत-धारण करनेमें उद्यमी रहनेसे तथा उनके धारण करनेसे, क्षमा धारण करनेसे, दान देनेसे, तथा गुरुजनोंकी भक्ति करनेसे सातावेदनीय कर्मका तीव्र बन्ध होता है । और इनसे विपरीत आचरण करनेसे असातावेदनीय कर्मका तीव्र बन्ध होता है ॥२०॥ विशेषार्थ-सर्व जीवों पर दया करनेसे, धर्ममें अनुराग रखनेसे, धर्मके आचरण करनेसे, व्रत, शील और उपवासके सेवनसे, क्रोध नहीं करनेसे, शील, तप और संयममें निरत व्रती जनोंको प्रासुक वस्तुओंके दान देनेसे, बाल, वृद्ध, तपस्वी और रोगी जनोंकी वैयावृत्य करनेसे, आचार्य, उपाध्याय, साधु तथा माता, पिता और गुरुजनोंकी भक्ति करनेसे, सिद्धायतन और चैत्य-चैत्यालयोंकी पूजा करनेसे, मन, वचन और कायको सरल एवं शान्त रखनेसे सातावेदनीय कर्मका तीव्र बन्ध होता है । प्राणियोंपर क्रूरतापूर्वक हिंसक भाव रखने और तथैव आचरण करनेसे, पशु-पक्षियोंका बध-बन्धन, छेदन-भेदन और अंग-उपांगादिके काटनेसे, उन्हें बधिया (नपुंसक) करनेसे, शारीरिक और मानसिक दुःखोंके उत्पादनसे, तीव्र अशुभ परिणाम रखनेसे, विषय-कषाय-बहुल प्रवृत्ति करनेसे, अधिक निद्रा लेनेसे, तथा पंच पापरूप आचरण करनेसे तीव्र असातावेदनीय कर्मका बन्ध होता है। 1. सं. पञ्चसं.४,७१-७३ । १. शतक. १७ ॐब उज्ज। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001937
Book TitlePanchsangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages872
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size21 MB
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