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________________ ३३० पञ्चसंग्रह त्रिलोकोदरवर्तिचराचरजीवा मोहिताः वैचिन्त्यं प्रापिताः सन्ति ११५ उदयविकल्पाः स्थानविकल्पाः भवन्ति । ६६७१ प्रकृतिविकल्पा उदयप्रकृतिसंख्याभंगा विज्ञेया भवन्ति ॥४६॥ इति मोहनीयप्रकृत्युदयभेदः समाप्तः। - सर्व संसारी जीव नौ सौ पंचानवे उदय-विकल्पोंसे तथा उनहत्तर सौ इकहत्तर अर्थात् छह हजार नौ सौ इकहत्तर भंगरूप पदबन्धोंसे मोहित हो रहे हैं, ऐसा जानना चाहिए ।।४६॥ अब मोहनीयके बन्धस्थानोंमें सत्त्वस्थानके भंग सामान्यसे कहते हैं 'पढमे विदिए तीसु वि पंचाई बंधउवरदे कमसो। कमसो तिण्णि य एगं पंचय छह सत्त चत्तारि ॥४७॥ संतटठाणाणि- २२ २१ १७ १३ १ ५४ ३ २ १ . ३ १ ५ ५ ५ ६ ७४ ४ ४ ४ अथ मोहनीयबन्धस्थानेषु सत्वस्थानभङ्गान् सामान्येनाह-['पढमे विदिए तीसु वि' इत्यादि। प्रथमे द्वाविंशतिबन्धे सत्त्वस्थानानि त्रीणि २८।२७।२६ । द्वितीये एकविंशतिके बन्धे सत्त्वस्थानमेकं २८ । त्रिषु बन्धेषु सप्तदशकबन्धे त्रयोदशकबन्धे नवकबन्धके च सत्त्वस्थानानि पञ्च २८।२४।२३।२२।२१ । पञ्चबन्धके सत्त्वस्थानानि षट २८।२४२११३१२।११। चतुर्विधबन्धके सप्त सत्त्वस्थानानि २८२४॥२१॥ १३।१२।१११५। त्रिद्वय कबन्धके भबन्धके च सस्वस्थानानि चत्वारि चत्वारि क्रमेण स्वभागबन्धकेषु सत्त्वानि ॥४॥ २२ २१ १७ १३ ४ ५ ४ ३ २ १ . प्रथम बन्धस्थानमें, द्वितीय बन्धस्थानमें, तदनन्तर क्रमशः तीन बन्धस्थानोंमें, पुनः पंच आदि एक पर्यन्त बन्धस्थानोंमें और उपरतबन्धमें क्रमसे तीन, एक, पाँच, छह, सात और चार सत्त्वस्थान होते हैं ॥४७॥ ____ किस बन्धस्थानमें कितने सत्त्वस्थान होते हैं, इस बातको बतानेवाली अंकसंदृष्टि मूलमें दी हुई है। एवं ओघेण भणिय विसेसेण वुच्चए इस प्रकार ओघसे बन्धस्थानोंमें सत्त्वस्थानोंको कह करके अब मूलगाथाकार विशेषरूपसे उन्हें कहते हैं[मूलगा०१७] आइतियं वावीसे इगिवीसे अट्ठवीस कम्मंसा । सत्तरस तेरस णव बंधए अड-चउ-तिग-दुगेगहियवीसा ॥४८॥ वावीसबंधए संतट्ठाणाणि २८।२७।२६। एगवीसबंधए २८। सत्तरस-तेरस-णवबंधएसु २८।२४।२३।२२।२१।। अथ विशेषेण गुणस्यानेषु मोहबन्धस्थानं प्रति सत्त्वस्थानान्याह-एवं ओघेण भणिय विसेसेण वुच्चई' एवं उक्तप्रकारेण सामान्येन मोहप्रकृतिबन्धेषु सत्वस्थानानि । भणितानि गुणस्थानैः सह विशेषेण तान्युच्यन्ते 1. सं० पञ्चसं० ५, ५६ । 2. ५, 'मोहस्य सत्तास्थानानि' इत्यादिगद्यांशः (पृ० १६०)। 3. ५, ५७ । 4. ५, 'द्वाविंशतिबन्धके' इत्यादिगद्यांशः (पृ० १६१)। १. सप्ततिका० २१ । परं तदृक् पाठः तिन्नेव य बावीसे इगवीसे अटवीस सत्तरसे। छच्चेव तेर-नवबंधगेसु पंचेव ठागाई ॥ श्व भणिया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001937
Book TitlePanchsangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages872
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size21 MB
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