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________________ २१२ पञ्चसंग्रह ततोऽसंख्यगुणानि स्युः स्थितिस्थानान्यतः स्थितेः। स्थानान्यध्यवसायानामसंख्यातगुणानि वै ।।५४।। असंख्यातगुणान्यस्माद्रसस्थानानि कर्मणाम् । ततोऽनन्तगुणाः सन्ति प्रदेशाः कर्मगोचराः ॥५५॥ अविभागपरिच्छेदाः सर्वेषामपि कर्मणाम् । एकैकत्र रसस्थाने ततोऽनन्तगुणाः मताः ॥५६॥ इति सर्व योगस्थान जगच्छणीके असंख्यातवें भाग-प्रमाण हैं। योगस्थानोंसे असंख्यातगुणित मतिज्ञानावरणादि सर्व कर्म-प्रकृतियोंका संग्रह अर्थात् समुदाय या प्रमाण जानना चाहिए। प्रकृतियोंके संग्रहसे प्रकृतियोंकी स्थितियोंके भेद असंख्यात-गुणित हैं। स्थिति-भेदोंसे उनके बन्धके कारणभूत स्थितिबन्धाध्यवसायस्थान असंख्यात-गुणित होते हैं। स्थितिबन्धाध्यवसायस्थानोंसे अनुभागबन्धाध्यवसायस्थान असंख्यात-गुणित होते हैं। अनुभागबन्धाध्यवसायस्थानोंसे अनन्तगुणित कर्म-प्रदेश जानना चाहिए। कर्मप्रदेशोंसे उनके अविभागप्रतिच्छेद अनन्तगुणित होते हैं । इस प्रकार द्वादशांग श्रुतमें प्रवर अर्थात् सर्वश्रेष्ठ जो दृष्टिवाद है, उसमें कुशल एवं विशुद्धमतिवाले आचार्य कहते हैं ॥५१६-५१६॥ इस प्रकार प्रदेशबन्धका वर्णन समाप्त हुआ। अब मूल शतककार ग्रन्थका उपसंहार करते हुए अपनी लघुता प्रकट करते हैं [मूलगा०१०३]'एसो बंधसमासो पिंडक्खेवेण वण्णिओ किंचि । कम्मप्पवादसुयसायरस्स णिस्संदमेत्तो दु॥२०॥ एषः प्रत्यक्षीभूतः बन्धसमासः मूलोत्तरकर्मप्रकृतीनां प्रकृतिस्थित्यनुभागप्रदेशबन्धसमासः संक्षेपः स्तोकमात्रः पिण्डरूपेणकत्रीकरणेन मया वर्णितः प्रतिपादितः। स कथम्भूतः १ कर्मप्रवादपूर्वनामश्रुतसागरस्य निःस्यन्दमात्रो बिन्दुमात्रो लेशः निर्यासः साररूप इत्यर्थः ॥५२०॥ तथा चोक्तम् कर्मप्रवादाम्बुधिबिन्दुकल्पश्चतुर्विधो बन्धविधिः स्वशक्त्या। संक्षेपतो यः कथितो मयाऽसौ विस्तारणीयो महनीयबोधैः ॥५७।। यह बन्धसमास अर्थात् प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश, इन चारों प्रकारके बन्धोंका संक्षेपसे कुछ कथन मैंने पिण्डरूपसे एकत्रित करके वर्णन किया है, जो कि कर्मप्रवाद नामक श्रुतसागरका निस्यन्द-मात्र अर्थात् सार-स्वरूप है ॥५२०॥ [मूलगा०१०४] बंधविहाणसमासो रइओ अप्पसुयमंदमदिणा दु । तं बंधमोक्खकुसला पूरेदूर्ण परिकहेंतु ॥५२१॥ तु पुनः कर्मप्रकृतिबन्धविधानं संक्षेपं मया रचितम् । किम्भूतेन मया ? अल्पश्रुतमन्दमतिना । तद्वन्धविधानं पूरयित्वा यद्धीनाधिकं आगमविरुद्धं भया कथितं तत्सर्व शुद्धं कृत्वा इत्यर्थः । भोः बन्ध-मोक्षकुशलाः कर्मबन्धमोक्ष कुशलाः कर्मणां बन्धमोचने दक्षाः परिसमन्तात् कथयन्तु प्रतिपादयन्तु ॥५२१॥ इस बन्ध-विधान-समासको अल्पश्रत और मन्दमति मैंने रचा है, सो इसे बन्ध और मोक्ष तत्त्वके जानने में जो कुशल आचार्थ हैं, वे छूटे हुए अर्थको पूरा करके उसका व्याख्यान करें ॥५२१॥ 1. सं. पञ्चसं०४,३७३ 12.४, ३७४ । १. शतक. १०४ । २. शतक० १०५। *सं० पञ्चसं० ४,३६६-३७२। सं० पञ्चसं० ४, ३७३ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001937
Book TitlePanchsangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages872
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size21 MB
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