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________________ शतक २१३ अब ग्रन्थकार प्रकृत ग्रन्थके अध्ययनका फल कहते हैं[मूलगा०१०५] इय कम्मपयडिपगदं संखेवुद्दिट्टणिच्छिदमहत्थं । जो उव जुंजइ वहुसो सो णाहिदि बंधमोक्खटुं' ॥५२२॥ इति अमुना प्रकारेण कर्मप्रकृतिप्रकृतं कर्मप्रकृतीनां प्रवर्तितशास्त्रं संक्षेपेणोद्दिष्टम् । कथम्भूतम् ? निश्चितमहदर्थ समुच्चीकृतबह्वर्थम् । यो भव्यस्तत्कर्मप्रकृतिस्वरूपशास्त्रं उपयुभति बहुशः वारम्वारं विचारयति स भव्यः बन्ध-मोक्षार्थ स्वाति कर्ममलस्फेटनार्थ पवित्रो भवति, वा कर्मबन्धस्य मोक्षार्थ प्रवर्तते ॥५२२॥ विद्यानन्दिगुरुर्यतीश्वरमहान् श्रीमूलसङ्घऽनघे श्रीभट्टारकमल्लिभूषणमुनिर्लक्ष्मीन्दु-वीरेन्दुको । तत्पट्टे भुवि भास्करो यतिव्रतिः श्रीज्ञानभूषो गणी तत्पादद्वयपङ्कजे मधुकरः श्रीमत्प्रभेन्दुयती ॥५८।। बन्धविचारं बहुविधिभेदं यो हृदि धते विगलितपापम् । याति स भव्यः सुमतिसुकीर्ति सौख्यमनन्तं शिवपदसारम् ॥५६ गुणस्थानविशेषेषु प्रकृतीनां नियोजने। स्वामित्वमिह सर्वत्र स्वयमेव विबुध्यताम् ।।६०॥* इसप्रकार शब्द-रचनाकी अपेक्षा संक्षेपसे कहे गये, किन्तु अर्थके प्रमाणकी अपेक्षा महान् इस प्रकृत कर्मप्रकृति अधिकारका वार-वार उपयोगपूर्वक अध्ययन, मनन एवं चिन्तन करता है, वह बन्ध और मोक्ष तत्त्वके अर्थको जान लेता है। अथवा कर्म-बन्धसे मुक्त होकर मोक्षरूप अर्थको प्राप्त कर लेता है ॥५२२॥ इस प्रकार सभाष्य शतक नामक चतुर्थ प्रकरण समाप्त हुआ। १. शतक० १०६ ।। २. संस्कृत पञ्चसंग्रहमें यह पद्य इस प्रकार पाया जाता है-- 'बन्धविचारं बहुतमभेदं यो हृदि धत्ते विगलितखेदम् । याति स भव्यो व्यपगतकष्टां सिद्धिमबन्धोऽमितगतिरिष्टाम् ॥ (सं० पञ्चसं० ४, ३७४ ।) ३. सं० पञ्चसं० ४, ३७५ । * इस श्लोकके अनन्तर संस्कृतटीकाकारकी यह पुष्पिका पाई जाती हैइति श्रीपञ्चसंग्रहापरनामलघुगोम्मट्टसारसिद्धान्तटीकायां कर्मकाण्डाधिकारशतके बन्धाधिकारनाम पञ्चमोऽधिकारः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001937
Book TitlePanchsangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages872
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size21 MB
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