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________________ २४६ पञ्चसंग्रह आयुषो यावती स्थितिस्तावारिषेको भवति । तथा च -. आबाधो स्थितावस्यां समयं समयं प्रति । कर्माणुस्कन्धनिक्षेपो निषेकः सर्वकर्मणाम् ॥३५॥ परतः परतः स्तोकः पूर्वतः पूर्वतो बहुः। समये समये ज्ञेयो यावस्थितिसमापनम् ॥३६।। स्वां स्वामाबाधां मुक्त्वा सर्वकर्मणां निषेका वक्तव्याः । तेषाञ्च गोपुच्छाकारेणावस्थितिः ॥३६५॥ आयुके विना शेष सात कर्मोको बँधी हुई स्थितिमेंसे आबाधाकालके घटा देनेसे जो स्थिति शेष रहती है, वह कर्मनिषेककाल है। आयुकर्मका कर्मनिषेककाल उसकी अपनी सर्व स्थिति ही जाननी चाहिए ॥३६५॥ विशेषार्थ—प्रत्येक समयमें खिरने या निर्जीर्ण होनेवाले कर्मपरमाणुओंके समूहको निपेक कहते हैं। आयुके विना शेष कर्मोंका जितना स्थितिबन्ध होता है, उसमेंसे ऊपर बतलाये गये नियमके अनुसार आबाधाकालके घटा देनेपर जो स्थिति शेष रहती है, उसे निषेककाल कहते इसका अभिप्राय यह हआ कि विवक्षित समयमें बंधनेवाले कर्मपिण्डमें जितने परमाणु हैं, वे आगममें बतलाई गई एक निश्चित विधिके अनुसार निषेककालके जितने समय हैं, उनमें विभक्त हो जाते हैं और फिर अपनी-अपनी अवधिके पूर्ण होनेपर खिर जाते हैं। किन्तु आयुकर्म उक्त नियमका अपवाद है। उसमें अन्य कर्मों के समान आबाधाकाल और निषेककाल ऐसे दो विभाग नहीं हैं; किन्तु जिस आयुकर्मकी जितनी स्थिति बँधती है, वह सभी निपेककाल है। अर्थात् उतनी स्थिति-प्रमाण उसके निषेकोंकी रचना होती है। ऊपर जो आयुकर्मकी उत्कृष्ट आबाधा पूर्वकोटा वर्षका त्रिभाग बतलाया गया है, सो भुज्यमान आयुकी अपेक्षा बतला है, बध्यमान आयुकी अपेक्षा नहीं, ऐसा विशेष जानना चाहिए । मूल शतककी जो चूर्णि उपलब्ध है, उसमें नरकायु-देवायुकी उत्कृष्ट स्थिति पूर्वकोटि वर्षके त्रिभागसे अधिक तेतीस सागरोपम बतलाया है। यथा 'देव-णिरयाउगाणं उक्कोसगो ठिइबंधो तेत्तीसं सागरोवमाणि पुव्वकोडितिभागहियाणि, पुवकोडितिभागो अबाहा । अबाहाए विणा कम्महिई कम्मणिसेगो। ' इसी प्रकार मनुष्य-तिर्यञ्चोंकी भी उत्कृष्ट आयुके विषयमें कहा है 'मणुस-तिरियारगाणं उक्कोसहिई तिणि पलिओवमाणि पुवकोडितिभागसहियाणि । पुवकोडितिभागो अबाहा । अबाहाए विणा कम्मट्टिई कम्मणिसेगो।' .. यह कथन पूर्वकोटि प्रमाण कर्मभूमियाँ मनुष्य-तिर्यञ्चोंकी भुज्यमान आयुके त्रिभागरूप आबाधाकालको सम्मिलित करके कहा गया समझना चाहिए। अब उत्तर प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका निरूपण करते हैं 'आवरणमंतराए पण णव पणयं असायवेयणियं । तीसं कोडाकोडी सायरणामाणमुक्कस्सं ॥३६६॥ २० एदासिं ठिदी ३० । अथोत्तरप्रकृतीनां स्थितिमुत्कृष्टां गाथाद्वादशकेनाऽऽह--[ 'आवरणमन्तराए' इत्यादि । मतिज्ञानावरणादिपञ्चकं ५ चक्षुर्दर्शनावरणादि नव है दानान्तरायादिपञ्चकं ५ असातवेदनीयं १ चेति विंशतः 1. सं० पञ्चसं० ४, २११ । १. सं० पञ्चसं० ४, २०६-२१० । २. एषापि पङ्क्तिस्तत्रैवोपलभ्यते (सं० पञ्चसं० पृ० १३२) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001937
Book TitlePanchsangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages872
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size21 MB
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