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________________ जीवसमास संशो-असंज्ञीके स्वरूपका और भी स्पष्टीकरण मीमंसइ जो पुव्वं कजमकजं च तच्चमिदरं च । सिक्खइ णामेणेदि य समणो अमणो य विवरीओ ॥१७४॥ एवं कए मए पुण एवं होदि ति कजणिप्पत्ती । जो दु विचारइ जीवो सो सण्णी असण्णि इयरो य ॥१७॥ जो जीव किसी कार्यको करनेके पूर्व कर्त्तव्य और अकर्त्तव्यकी मीमांसा करे, तत्त्व और अतत्त्वका विचार करे, योग्यको सीखे और उसके नामसे पुकारने पर आवे, उसे समनस्क या संज्ञी कहते हैं। इससे विपरीत स्वरूपवालेको अमनस्क या असंज्ञी कहते हैं। जो जीव ऐसा विचार करता है कि मेरे इस प्रकारके कार्य करने पर इस प्रकारके कार्यकी निष्पत्ति होगी, वह संज्ञी है। जो ऐसा विचार नहीं करता है, वह असंज्ञो जानना चाहिए ॥१७४-१७५ ।। इस प्रकार संज्ञिमार्गणा समाप्त हुई। आहारमार्गणा, आहारकका स्वरूप आहारइ सरीराणं तिण्हं एकदरवग्गणाओ य । भासा मणस्स णिययं तम्हा आहारओ भणिओ ॥१७६॥ जो जीव औदारिक, वैक्रियिक और आहारक इन तीन शरीरोंमेंसे उदयको प्राप्त हुए किसी एक शरीरके योग्य शरीरवर्गणाको, तथा भाषावर्गणा और मनोवर्गणाको नियमसे ग्रहण करता है, वह आहारक कहा गया है ।।१७६।। आहारक और अनाहारक जीवोंका विभाजन विग्गहगइमावण्णा केवलिणो समुहदो अजोगी य । सिद्धा य अणाहारा सेसा आहारया जीवा ॥१७७॥ विग्रहगतिको प्राप्त हुए चारों गतिके जीव, प्रतर और लोकपूरण समुद्भातको प्राप्त सयोगिकेवली और अयोगिकेवली, तथा सिद्ध भगवान ये सब अनाहारक होते हैं, अर्थात् औदारिकादि शरीरके योग्य पुद्गलपिंडको ग्रहण नहीं करते हैं। इनके अतिरिक्त शेष सब जीव आहारक होते हैं ॥१७७॥ इस प्रकार आहारमार्गणा समाप्त हुई। उपयोगप्ररूपणा, उपयोगका स्वरूप और भेद-निरूपण 'वत्थुणिमित्तो भावो जादो जीवस्स होदि उवओगो। उवओगो सो दुविहो सागारो चेव अणगारो ॥१७८॥ 1. सं० पञ्चसं० १, ३२० । 2. १, ३२३ । 3. १, ३२४ । 4. १, ३३२ । १. गो० जी० ६६१। २. ध० भा० १ पृ०१५२ गा० १८। गो०जी० ६६४ । ३. ध० भा०१ पृष्ठ १५३ गा० १६ । गो० जी० ६६५ । ४. गो० जी० ६७१ । द -ग्घदो। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001937
Book TitlePanchsangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages872
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size21 MB
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