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पञ्चसंग्रह
जीवका जो भाव वस्तुके ग्रहण करनेके लिए प्रवृत्त होता है, उसे उपयोग करते हैं । वह साकार और अनाकारके भेदसे दो प्रकारका जानना चाहिए ॥१७८॥ साकार उपयोगका स्वरूप
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'मइ- सुइ - ओहि मणेहि य जं सयविसयं विसेसविण्णाणं ।
अंतोमुहुत्तकालो उवओोगो सो हु सागारो ॥ १७६ ॥
मति, श्रुत, अवधि और मनः पर्ययज्ञानके द्वारा जो अपने-अपने विषयका विशेष विज्ञान होता है, उसे साकार - उपयोग कहते हैं । यह अन्तर्मुहूर्त्तकाल तक होता है ॥ १७६ ॥ अनाकार - उपयोगका स्वरूप -
'इंदियमणोहिणा वा अत्थे अविसेसिऊण जं गहणं ।
तोमुहुत्तकालो उवओगो सो अगागारो ॥१८०॥
इन्द्रिय, मन और अवधिके द्वारा पदार्थों की विशेषताको ग्रहण न करके जो सामान्य अंशका ग्रहण होता है, उसे अनाकार उपयोग कहते हैं । यह भी अन्तर्मुहूर्त्तकाल तक होता है ॥ १८० ॥
केवलिणं सागारो अणगारो जुगवदेव उवओगो । सादी अनंतकाल पच्चक्खो सव्वभावगदो ॥ १८१ ॥
केवलियोंके साकार और अनाकार उपयोग युगपत् हो होता है । उसका काल सादि और अनन्त है, अर्थात् उत्पन्न होनेके पश्चात् अनन्तकाल तक रहता है । वह प्रत्यक्ष है और सर्व भाव-गत है, अर्थात् चराचर जगद्व्यापी समस्त पदार्थोंको जानता है ॥१८२॥
इस प्रकार उपयोगप्ररूपणा समाप्त हुई ।
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जीवसमास-अधिकारका उपसंहार -
'णिक्खेवे एयट्ठे णयप्यमाणे णिरुत्ति अणिओगे ।
मग वीसं भेए सो जाणइ जीवसब्भावं ॥ १८२ ॥
जो ज्ञानी पुरुष निक्षेप, एकार्थं, नय, प्रमाण, निरुक्ति और अनुयोगमें उपर्युक्त बीस प्ररूपणारूप भेदों का अन्वेषण करता है, वह जीवके सद्भाव अर्थात् यथार्थ स्वरूपको जानता है ॥ १८२ ॥ छहों लेश्याओंके वर्ण -
किव्हा भमर-सवण्णा णीला पुण णील-गुलियसंकासा । काऊ कद-वण्णा तेऊ तवणिज-वण्णा हु ॥१८३॥ पम्हा पउमसवण्णा सुक्का पुणु कासकुसुमसंकासा । वतरं च एदे हवंति परिमिता अनंता वा ॥ १८४॥
1. सं० पंचसं० १, ३३३ । १. १, ३३४ । ३.१, ३३५ । 4. १, ३५३ ।
१. गो० जी० ६७३, परं तत्र द्वितीयचरणे 'जं सयविसयं' स्थाने 'सगसगविसये' इति पाठः । २. गो०जी० ६७४ ।
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