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________________ जीवसमास अपर्याप्त मनुष्य, वैक्रियिकमिश्रयोग, दोनों आहारक अर्थात् आहारककाययोग और आहारक मिश्रकाययोग, सूक्ष्मसाम्परायचारित्र, सासादनसम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और उपशमसम्यक्त्व ये आठ सान्तर मार्गणा होती हैं ॥ ५८ ॥ इनमें से गतिमार्गणा में एक, योगमार्गणा में तीन, संयममार्गणा में सूक्ष्मसाम्परायचारित्र तथा सम्यक्त्वमार्गणा में अन्तिम तीन, इस प्रकार आठ सान्तर मार्गणाएँ जानना चाहिए । अब गतिमार्गणाका वर्णन करते हुए पहले गतिका स्वरूप कहते हैं'गहकम्मविणिव्वत्ता जा चेट्ठा सा गई मुणेयव्वा । जीवा हु चाउरंगं गच्छंति हु सा गतिनामा नामकर्मसे उत्पन्न होनेवाली जो चाहिए । अथवा जिसके द्वारा जीव नरक, तिर्यच, करते हैं, वह गति कहलाती है ||५६ || नरकगतिका स्वरूप 'ण रमंति जदो णिच्चं दव्वे खेत्ते य काल भावे य । अण्णोणेहि यणिचं तम्हा ते णारया भणियां ॥ ६० ॥ 118-11 तिर्यग्गतिका स्वरूप - गई होई ॥५६॥ चेष्टा या क्रिया होती है उसे गति जानना मनुष्य और देव इन चारों गतियोंमें गमन यतः तत्स्थानवर्ती द्रव्यमें, क्षेत्रमें, कालमें और भावमें जो जीव रमते नहीं हैं, तथा परस्परमें भी जो कभी भी प्रीतिको प्राप्त नहीं होते हैं, अतएव वे नारक या नारकी कहे जाते Jain Education International १३ " तिरियंति कुडिलभावं विगयसुसण्णा किट्टमण्णाणा । अच्चतपावबहुला तम्हा ते तिरिच्छिया भणियाँ ॥ ६१ ॥ यतः जो सदा कुटिलभावका आचरण करते हैं, उत्कट संज्ञाओंके धारक हैं, निकृष्ट एवं अज्ञानी हैं, अत्यन्त पाप- बहुल हैं, अतः वे तिर्यश्व कहे जाते हैं ॥ ६१॥ मनुष्यगतिका स्वरूप ' मण्णंति जदो णिचं मणेण णिउणा जदो दु जे जीवा । मणउक्कडा य जम्हा तम्हा ते माणुसा भणिया ॥६२॥ यतः जो मनके द्वारा नित्य ही हेय उपादेय तत्त्व अतत्त्व और धर्म-अधर्मका विचार करते हैं, कार्य करनेमें निपुण हैं, मनसे उत्कृष्ट हैं, अर्थात् उत्कृष्ट मनके धारक हैं, और युगके आदिमें मनुओंसे उत्पन्न हुए हैं, अतएव वे मनुष्य कहलाते हैं ||६२|| देवगतिका स्वरूप 'कडंति जदो णिचं गुणेहिं अट्ठेहिं दिव्वभावेहिं । भासं दिव्य काया तम्हा ते वणिया देवा ॥६३॥ 1. सं० पञ्चसं० १, १३६ | 2. १, १३७ । ३. १, १३८ | 4. १, १३६ । २.१, १४० । १. घ० भा० १ पृ० १३५ गा० ८४ । २. घ० भा० १ पृ० २०२ गा० १२८ । गो०जी० १४६ । ३. ध० भा० १ पृ० २०२ गा० १२६ । गो० जी० १४७ । ४. ध० भा० १ पृ० २०३ गा० १३० । गो०जी० १४८ । ५. ध० भा० १ पृ० २०३ गा० १३१ । गो०जी० १५० । परन्तु भयत्रापि ' की डंति' स्थाने 'दिव्वंति' पाठः । + द मनाणा | For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001937
Book TitlePanchsangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages872
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size21 MB
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