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पञ्चसंग्रह
सर्वासु मार्गणास्वेवं सत्संख्याद्यष्टकेऽपि च । बन्धादित्रितयं नाम्नो योजनीयं यथागमम् ।।
(सं० पश्चसं० ५,३७) इसी पांचवें प्रकरणके अन्त में गा० ५०१ से लगाकर ५०४ तककी जो चार मूलगाथाएँ हैं, उनका वर्णन भी सं० पञ्चसंग्रहकारने नहीं किया है।
५. शैली-भेद प्रा० पञ्चसंग्रहके चौथे प्रकरणमें गाथाङ्क १०५ से लगाकर गा० २०३ तक जो गुणस्थानोंमें बन्धप्रत्ययोंके भङ्गोंका वर्णन किया गया है, उसका अधिकांश वर्णन गद्य या पद्यमें न करके अमितगतिने अङ्कसंदृष्टियोंके द्वारा ही प्रकट किया है। ( इसके लिए देखिए-सं० पञ्चसंग्रहके पृ० ९२ से ११० तक दी गई संदृष्टियाँ ।)
६. कुछ विशिष्ट ग्रन्थ या ग्रन्थकारादिके उल्लेख अमितगतिने सं० पञ्चसंग्रहमें कुछ श्लोक 'अपरेऽप्येवमाहुः' इत्यादि कहकर उद्धृत किये हैं; जिनसे ज्ञात होता है कि उनके सामने संस्कृत भाषामें रचित कोई कर्म-विषयक ग्रन्थ रहा है। ऐसे कुछ उल्लेखोंका निर्देश यहाँ किया जाता है१. तीसरे प्रकरणमें पांचवें श्लोकके पश्चात् 'तदुक्तम्' कहकर निम्न श्लोक दिया है
परस्परं प्रदेशानां प्रवेशो जीव-कर्मणोः ।
एकत्वकारको बन्धो रुक्म-काञ्चनयोरिव ॥६॥ मेरे उपर्युक्त अनुमानकी पुष्टि खास तौरसे इस श्लोकसे होती है। क्योंकि इसी अर्थका प्रतिपादन करनेवाली गाथा प्रा० पञ्चसंग्रहके इसी तीसरे प्रकरणमें दूसरे नम्बरपर इस प्रकार पाई जाती है
कंचण-रुप्पदवाणं एयत्तं जेम अणुपवेसो नि।
अण्णोण्णपवेसाणं तह बन्धं जीव-कम्माणं ॥२॥ २. चौथे प्रकरणमें बन्ध-प्रत्ययोंका निरूपण करने के पश्चात् अमितगति लिखते हैं
"इति प्रधानप्रत्ययनिर्देशः । अपरेऽप्येवमाहुः-और इसके पश्चात् ३२२ से ३२५ तकके निम्न चार श्लोक दिये हैं
मिथ्यात्वस्योदये यान्ति षोडश प्रथमे गुणे । संयोजनोदये बन्धं सासने पञ्चविंशतिः ॥ कपायाणां द्वितीयानामुदये नियंते दश । स्वीक्रियन्ते तृतीयानां चतस्रो देशसंयते ॥ सयोगे योगतः सातं शेषः स्वे स्वे गुणे पुनः। विमुच्याहारकद्वन्द्वतीर्थकृत्वे कषायतः ॥
षष्ठिः पञ्चाधिका बन्धं प्रकृतीनां प्रपद्यते । ३. पाँचवें प्रकरणमें प० २२२ पर उपशमश्रेणीमें नोकषायोंके उपशमनका प्ररूपण करते हुए 'शान्तः पतः' इस तिरपनवें श्लोकके पश्चात् 'उक्तं च' कहकर निम्न-लिखित दो श्लोक पाये जाते है
पार्यते नोदयो दातुं यत्सत् शान्तं निगद्यते । संक्रमोदययोर्या तनिधत्तं मनीषिभिः ॥५४॥ शक्यते संक्रमे पाके यदुत्कर्षापकर्पयोः ।
चतुपु कर्म नो दातुं भण्यते तनिकाचितम् ॥५५॥ इन श्लोकोंमें उपशम, निधत्ति और निकाचित करणका स्वरूप बतलाया गया है ।
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