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________________ प्रस्तावना दोनों प्राकृत पञ्चसंग्रहोंमें प्राचीन कौन ? दि० और श्वे० प्राकृत पञ्चसंग्रहमेंसे प्राचीन कौन है, यह एक प्रश्न दोनोंके सामने आनेपर उपस्थित होता है । इस प्रश्नके पूर्व हमें दोनोंके पांचों अधिकारोंके नाम जानना आवश्यक है। दि० प्रा० पञ्चसंग्रहके पाँच प्रकरण इस प्रकार हैं १-जीवसमास, २-प्रकृतिसमुत्कीर्तन, ३-बन्धस्तव, ४-शतक और ५-सप्ततिका । श्वे० प्रा० पञ्चसंग्रहके ५ संग्रह या प्रकरणोंके बारेमें ऐसा प्रतीत होता है कि स्वयं ग्रन्थकार ही किसी एक निश्चयपर नहीं है और इसीलिए वे ग्रन्थ प्रारम्भ करते हुए लिखते हैं: सयगाई पंच गंथा जहारिहं जेण एत्थ संखित्ता । दाराणि पंच अहवा तेण जहस्थाभिहाणमिणं ॥२॥ इस गाथाका भाव यह है कि यतः इस ग्रन्थमें शतक आदि पाँच प्राचीन ग्रन्थ यथास्थान यथायोग्य संक्षेप करके संगृहीत हैं, इसलिए इसका ‘पञ्चसंग्रह' यह नाम सार्थक है। अथवा इसमें बन्धक आदि पाँच द्वार वर्णन किये गये हैं । इसलिए इसका 'पञ्चसंग्रह' यह नाम सार्थक है। ग्रन्थकारके कथनानुसार दोनों प्रकारके वे पाँच प्रकरण इस प्रकार हैंप्रथम प्रकार द्वितीय प्रकार १.-शतक १-बन्धक द्वार २-सप्ततिका २-बन्धव्य द्वार ३-कषायप्राभूत ३--बन्धहेतु द्वार ४--सत्कर्मप्राभृत ४-बन्धविधि द्वार ५-कर्मप्रकृति ५-बन्धलक्षण द्वार दि० प्रा० पञ्चसंग्रहके जिन पाँच प्रकरणोंके नाम ऊपर बतलाये हैं उनके साथ जब हम श्वे० पञ्चसंग्रहोक्त पाँचों ऑधकारोंका ऊपरी तौरपर या मोटे रूपसे मिलान करते हैं तो शतक और सप्ततिका यह दो नाम तो ज्यों-के-त्यों मिलते हैं। शेष तीन नहीं। किन्तु जब हम वणित-अर्थ या विषयको दृष्टिसे उनका गहराईसे मिलान करते हैं तो दिगम्बरोंका जीवसमास श्वेताम्बरोंका बन्धक द्वार है और दिगम्बरीका प्रकृतिसमुत्कीर्तन अधिकार श्वेताम्बरोंका बन्धव्यद्वार है। इस प्रकार दो और द्वारोंका समन्वय या मिलान हो जाता है। केवल एक द्वार 'बन्धलक्षण' शेष रहता है। सो उसका स्थान दिगम्बरोंका 'बन्धस्तव' ले लेता है। इस प्रकार दोनोंके भीतर एकरूपता स्थापित हो जाती है। दोनों प्रा० पञ्चसंग्रहोंका तुलनात्मक अध्ययन करनेपर ज्ञात होता है कि दि० प्रा० पञ्चसंग्रहके भीतर यतः संग्रहकारने अपनेसे पूर्व परम्परागत पाँच प्रकरणोंका संग्रह किया है और यद्यपि उनपर भाष्य गाथाएँ स्वतन्त्र रूपसे रची हैं तथापि पर्वाचार्योंकी कृतिको प्रसिद्ध रखने और स्वयं प्रसिद्धिके व्यामोहमें न पड़ने के कारण उनके नाम ज्यों-के-त्यों रख दिये हैं। दि० प्रा० पञ्चसंग्रहकारने प्रत्येक प्रकरणके प्रारम्भमें मंगलाचरण किया है । यहाँतक कि जहाँ सारा प्रकृतिसमुत्कोर्तनाधिकार गद्य रूपमें है वहाँ भी उन्होंने पद्यमें ही मंगलाचरण किया है। पर श्वे० पञ्चसंग्रहकार चन्द्रषिने ऐसा नहीं किया। इसका कारण क्या रहा, यह वे ही जानें। पर दोनोंके मिलानसे एक बात तो सहजमें ही हृदयपर अंकित होती है वह है दि० प्रा० पञ्चसंग्रहके प्राचीनत्वकी। दि० पञ्चसंग्रहकारने श्वे० पञ्चसंग्रइकारके समान ऐसी कोई प्रतिज्ञा नहीं की है कि मैं पञ्चसंग्रहकी रचना करता हूँ, जब कि चन्द्रषिने मंगलाचरणके उत्तरार्धमें ही 'वोच्छामि पंचसंगह' कहकर पञ्चसंग्रहके कथनकी प्रतिज्ञा की है। इस एक ही बातसे यह सिद्ध है कि उनके सामने दि० प्रा० पञ्चसंग्रह विद्यमान था और उसमें भी प्रायः वे ही शतक, सित्तरी आदि प्राचीन ग्रन्थ संग्रहीत थे जिनका कि संग्रह चन्द्रपिने किया है । पर दि० पञ्चसंग्रहकी कितनी ही बातोंको वे अपनी श्वे. मान्यताके विरुद्ध देखते थे और इस कारण उससे वे सन्तुष्ट नहीं थे। फलस्वरूप उन्हें एक स्वतन्त्र पञ्चसंग्रह रचनेकी प्रेरणा प्राप्त हुई और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001937
Book TitlePanchsangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages872
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size21 MB
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