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________________ २४ पश्चसंग्रह मतभेदवाले मन्तव्योंको श्वेताम्बर आगमानुमोदित या स्वगुरु-प्रतिपादित ढंगसे उन्हें यथास्थान निबद्ध करते हुए एक स्वतन्त्र पञ्चसंग्रह निर्माण किया। चन्द्रपिने जिन शतक आदि पाँच प्राचीन ग्रन्थोंको अपने पञ्चसंग्रहमें यथास्थान संक्षेपसे निबद्ध कर संगृहीत किया है उनमेंसे सौभाग्यसे चार प्रकरण स्वतन्त्र रूपसे आज हमारे सामने विद्यमान हैं और वे चारों ही अपनी टीका-णि आदिके साथ प्रकाशित हो चुके हैं। उनमेंसे कषायपाहड दिगम्बरोंकी : कर्मप्रकृति श्वेताम्बरोंकी ओरसे प्रकाशमें आये हैं, और दोनों सम्प्रदाय एक-एकको अपने-अपने सम्प्रदायका ग्रन्थ समझते हैं । शतक और सप्ततिका दोनों सम्प्रदायोंके भण्डारोंमें मिली हैं और दोनों ही सम्प्रदायोंके आचार्योने उनके विवादग्रस्त विषयोंका अपनी-अपनी मान्यताओंके अनुसार मूल पाठ रखकर चणि, टीका और भाष्य गाथाओंसे उन्हें समृद्ध किया है। केवल एक सत्कर्मप्राभूत ही ऐसा शेष रहता है जिसकी स्वतन्त्र रचना अभीतक भी प्राप्त नहीं हुई है। श्वे० परम्परामें तो इसका केवल नाम ही उपलब्ध है। किन्तु दि० परम्पराके प्रसिद्ध ग्रन्थ षट्खण्डागमकी धवला टीकामें अनेक बार 'संतकम्मपाहुड'का उल्लेख आया है और उसके अनेकों उद्धरण भी मिलते हैं। श्वे० प्रा० पञ्चसंग्रहके कर्ता चन्द्रषि और धवला टीकाके कर्ता वीरसेनके सम्मख यह सत्कर्मप्राभृत था। यह बात दोनोंके उल्लेखोंसे भलीभांति सिद्ध है। दूसरी बात जो सबसे अधिक विचारणीय है वह है शतकादि प्राचीन ग्रन्थोंके संक्षेपीकरण की। जब हम शतक आदि प्राचीन ग्रन्थोंकी गाथा-संख्याको सामने रखकर श्वे० पञ्चसंग्रहके उक्त प्रकरणकी गाथासंख्याका मिलान करते हैं तो संक्षेपीकरणकी कोई भी बात सिद्ध नहीं होती। यह बात नीचे दी जानेवाली तालिकासे स्पष्ट है:दि० प्राचीन शतक गाथा १०० श्वे० पञ्चसंग्रह शतक और सप्ततिका प्राचीन सप्ततिका गाथा ७० सम्मिलित गाथा-संख्या १५६ १७० परिशिष्ट गाथा १६७ प्राचीन शतक और सप्ततिकाकी गाथाओंका योग १७० होता है। श्वे० पञ्चसंग्रहमें दोनों प्रकरणोंको सम्मिलित रूपमें ही रचा गया है। पृथक्-पृथक् नहीं। तो भी उनकी गाथा-संख्या मय परिशिष्टके १६७ होती है। इस प्रकार कुल तीन गाथाओंका संक्षेपीकरण प्राप्त होता है। यहाँ इन गाथाओंके संक्षेपीकरणमें यह बात भी खास तौरसे ध्यान देनेके योग्य है कि प्राचीन शतक आदि ग्रन्थोंमें मंगलाचरण एवं अन्तिम उपसंहार आदि पाया जाता है। तब चन्द्रर्षिने वह कुछ भी नहीं किया। शतक प्रकरणमें ऐसी मंगलादिको प्रारम्भिक गाथाएँ दो हैं और उपसंहारात्मक गाथाएँ तीन हैं। इसी प्रकार सप्ततिकामें भी प्रारम्भिक गाथा एक और उपसंहारात्मक गाथाएँ तीन हैं। इन पांच और चार-९ गाथाओंको छोड़ देना ही संक्षेपीकरण माना जाय तो बात दूसरी है। अब लीजिए प्राचीन कम्मपयडी ( कर्मप्रकृति ) के संक्षेपीकरणकी बात । सो उसकी भी जाँच कर लीजिए। दोनोंके प्रकरणोंकी गाथा-संख्या इस प्रकार है :प्राचीन कर्मप्रकृति गाथा-संख्या श्वे० पञ्चसंग्रहान्तर्गत कर्मप्रकृति, गाथा-संख्या बन्धनकरण १०२ ११२ संक्रमकरण १११ ११९ उद्वर्तना० १० उदीरणा० ८९ उपशमना० निधत्ति ३८६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001937
Book TitlePanchsangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages872
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size21 MB
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