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प्रस्तावना
इस मिलानसे यह स्पष्ट दृष्टिगोचर हो रहा है कि प्राचीन कर्मप्रकृतिके किसी भी प्रकरणकी गाथाओंका संक्षेपीकरण नहीं हुआ है, प्रत्युत वृद्धिकरण ही हुआ है। यहाँ यह बात खास तौरसे विचारणीय है कि जब प्राचीन कर्मप्रकृति में उदय और सत्ता नामके दो अधिकार पृथक् पाये जाते हैं और जिनके कि गाथा संख्या ३२ और ५७ है, उन्हें श्वे० पञ्चसंग्रहकारने क्यों छोड़ दिया ? यदि इन दोनों समूचे प्रकरणोंको छोड़ देना ही उनका संक्षेपीकरण माना जाय तो बात दूसरी है ।
श्वे० पञ्चसंग्रहके अधिकारोंकी स्थिति भी बडी विलक्षण है। ग्रन्थकारने ग्रन्थके प्रारम्भमें जैसी प्रतिज्ञा को है उसके अनुसार शतक आदि प्राचीन पाँच ग्रन्थोंके संक्षेपीकरणवाले पाँच ही अधिकार स्पष्ट या पृथक रूपसे इस पञ्चसंग्रहमें होने चाहिए थे। सो उनमेंसे केवल दो ही अधिकार मिलते हैं-एक कर्मप्रकृतिसंग्रहके नामसे और दूसरा सप्ततिका संग्रहके नामसे। जिनका इस प्रकार विश्लेषण किया जा सकता है कि कर्मप्रकृति संग्रहमें कर्मप्रकृतिके अतिरिक्त कषायप्राभूत और सत्कर्मप्राभृतका भी संक्षेपीकरण कर लिया गया है और सप्ततिका-संग्रहमें सप्ततिका और शतकका संक्षेप किया गया है। परन्तु सप्ततिका-संग्रहमें दोनों ग्रन्थोंका संक्षेप कोई अर्थ नहीं रखता, क्योंकि ऊपर बतलाया जा चुका है कि मूल रूपसे मात्र तीन गाथाओंका ही अन्तर है । इस प्रकार शतक एवं सप्ततिकाके दो प्रकरणोंके स्वतन्त्र दो अधिकार न बना कर एकमें संग्रह करना कोई खास महत्त्व नहीं रखता है।
रह जाती है कर्मप्रकृति-संग्रहमें कषायप्राभृत आदि प्राचीन तीन ग्रन्थोंके संक्षेपीकरणकी बात। सो ग्रन्थके प्रारम्भमें की गयी प्रतिज्ञाके अनुसार उत्तम तो यही होता कि ग्रन्थकार कर्मप्रकृति, कषायप्राभूत और सत्कर्मप्राभूतके संक्षेप करनेवाले तीन ही प्रकरण पृथक् निर्माण करते और सप्ततिका शतकवाले दो प्रकरण स्वतन्त्र रचते । तो इन पांच ग्रन्थोंके संक्षेपीकरणके रूपसे 'पंचसंग्रह' यह नाम सार्थक होता । जैसा कि दि० पंचसंग्रहकारने किया है कि प्राचीन पाँच ग्रन्थोंको संग्रह करके और उनके कठिन या संक्षिप्त स्थलोंके स्पष्टीकरणार्थ भाष्य-गाथाएँ रचकर प्राचीन नामोंको ही अधिकारोंका नाम देकर 'पंच संग्रह' नामको चरितार्थ किया है और स्वयं अपने नाम-ख्यातिके प्रलोभनसे इतने दूर रहे हैं कि कहीं भी उन्होंने अपने नामका उल्लेख करना तो दूर रहा, संकेत तक भी नहीं किया है । अस्तु ।
थोड़ी देरके लिए उक्त पांच ग्रन्थोंका संग्रह दो ही प्रकरणोंमें मानकर सन्तोष कर लिया जाय और ग्रन्थकारकी इच्छाको ही प्रधानता दे दी जाय, पर यह जाँच करना तो शेष ही रह जाता है कि कर्मप्रकृति आदि तीन ग्रन्थोंका उन्होंने कर्मप्रकृति-संग्रहमें क्या संक्षेपीकरण किया। जहाँ तक कर्मप्रकृतिके प्रकरणोंका है हम ऊपर बतला आये हैं कि वह कुछ महत्त्व नहीं रखता।
रह जाती है कर्मप्रकृतिवाले संग्रहमें कषायप्राभूत और सत्कर्मप्राभतके संक्षेपीकरणकी बात । सो जाँच करनेपर वैसा कुछ भी दृष्टिगोचर नहीं होता।
दुर्भाग्यसे आज हमारे सामने सत्कर्मप्राभूत-जैसा कि आचार्योंके उल्लेखों आदिसे सिद्ध होता है-मूल गाथाओंके रूपमें उपस्थित नहीं है। या यह कहना अधिक उचित होगा कि उपलब्ध नहीं है। इसलिए उसके विषयमें कुछ नहीं कहा जा सकता कि चन्द्रषिने अपने पञ्चसंग्रहमें उसका क्या कितना संक्षेपीकरण किया है। पर सौभाग्यसे कषायप्राभृत आज उपलब्ध ही नहीं, अपितु मूल रूप में अपनी चूर्णि और उसकी टीका अनुवाद आदिके साथ प्रकाशित भी हो चुका है। उसको सामने रखकर जब हम पंचसंग्रहके इस कर्मप्रकृति-संग्रहवाले प्रकरणकी छानबीन करते हैं तो संक्षेपीकरणके नामपर हमें निराश ही होना पड़ता है।
__ यहाँ एक विशेष बात यह ज्ञातव्य है कि जहाँ दि० पञ्चरांग्रहमें पूर्व-परम्परागत प्रकरणोंकी गाथाओंको संकलित करके उनके दुरूह अर्थवाली संक्षिप्त गाथाओंके ऊपर ही अपनी भाष्य-गाथाएँ रची है, वहाँ चन्द्रषिने स्वतन्त्र रूपसे गाथाओंकी रचना करके अपने पञ्चसंग्रहका निर्माण किया है।
दि० के० पञ्चसंग्रहोंके ऊपर एक दण्टि डालनेपर राहजमें ही जो छाप हृदयपर अंकित होती है वह उनके सरल और कठिन रचे जानेकी । दि० पञ्चसंग्रहकी रनना जितनी सरल, सुस्पष्ट और सुगम है, वे०
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