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पञ्चसंग्रह
पञ्चसंग्रहकी रचना उतनी ही क्लिष्ट, कठिन और दुर्गम है। जिन्होंने प्राचीन और अर्वाचीन ग्रन्थोंकी रचनाओंका मौलिक रूपसे गहराईके साथ अध्ययन किया है वे इस बातसे सहमत हैं, कि सर्वप्रथम जिन ग्रन्थोंकी रचना की गयी वह अत्यन्त सरल शैलीकी रही है। पीछे-पीछे उनमें प्रौढ़ता एवं दुर्गमता आई है। इस विषयमें कुछ ग्रन्थ अपवाद भी हैं, पर उनका उद्देश्य दूसरा था। कसायपाहुड़, सप्ततिका आदि जैसे प्रकरणोंकी रचना सर्वसाधारणको दृष्टि में रखकर नहीं की गयी है। प्रत्युत उच्चारणाचार्य या व्याख्यानाचार्योको दृष्टिमें रखकर की गयी है। दूसरे ये ग्रन्थ उस विस्तीर्ण पूर्व साहित्यके संक्षिप्त बिन्दु रूपमें रचे गये हैं जिसे कि 'श्रुतसागर' कहा जाता है। अतः कसायपाहुड़ आदि जैसे ग्रन्थ वस्तुतः एक संकेतात्मक बीजपद रूपसे रचे गये ऐसे ग्रन्थ हैं जिन्हें आचार्य अपने प्रधान शिष्योंको पढ़ाकर और कण्ठस्थ कराकर उस पर उनके द्वारा सूचित या उनमें निबद्ध या निहित रहस्यका व्याख्यान देकर अपने शिष्योंको उनका यथार्थ अर्थबोध कराते थे। ये ग्रन्थ अभ्यासियों एवं जिज्ञासुओंके लिए एक प्रकारके नोट्स थे, जिनके आधारपर वे गुरु-प्रदत्त ज्ञानका अवधारण कर लेते थे। इसलिए इस प्रकारके ग्रन्थोंको छोड़कर सर्वसाधारणके लिए जो रचनाएँ हमारे महषिगण करते रहे हैं वे अत्यन्त सरल भाषामें रची गयी हैं। इसे हम इस प्रकार भी विभाजन करके कह सकते हैं कि उस कालमें दो प्रकारकी रचना-शैलियाँ रही हैं। एक सूत्र-शैली, दूसरी भाष्य-शैली। कसायपाहुड़, संतकम्मपाहुड़, सित्तरी आदि सूत्र-शैलीकी रचनाएँ हैं। इनके अर्थका मौखिक अवधारण जब असम्भवसा दिखने लगा तब मौखिक भाष्य-शैलीके स्थानपर लेखन रूप भाष्य-शैली प्रतिष्टित हई। उस समय उन सूत्ररूप मूल गाथाओंपर भाष्य-गाथाओंकी रचना की गयी। जब उतनेसे काम चलता दिखाई नहीं दिया, तब उनपर चणियोंके लिखे जानेका क्रम अपनाया गया। यह बात हमें कसायपाहुड़, सित्तरी आदिको मूल-गाथाओं, भाष्य-गाथाओं और उनपर लिखी गयी चूणियों आदिके देखनेसे सहजमें ही समझमें आ जाती है।
श्वे० पञ्चसंग्रहको रचना करते हुए चन्द्रषिके सम्मुख कम्मपयडी, कसायपाहुड़, संतकम्मपाहुड़, सतक और सित्तरी आदि ग्रन्थ तो थे ही, पर दि० प्रा० पञ्चसंग्रह भी था और उसके नामके आधारपर ही उन्होंने अपने ग्रन्थका पञ्चसंग्रह-यह नाम रखा। साथ ही यह प्रयत्न भी किया कि दि० पञ्चसंग्रहमें जो ग्रन्थ संग्रह करनेसे रह गये हैं उन सबका भी संग्रह इस नवीन रचे जानेवाले संग्रहमें कर दिया जाय । फलस्वरूप उन्होंने उन सबका संग्रह अपने पञ्चसंग्रहमें करना चाहा। पर उनके इस पञ्चसंग्रहमें उनके ही शब्दोंके अनुसार संग्रह तो नहीं हुआ है, हाँ, संक्षेपीकरण कहा जा सकता है। और प्रकरण-विभाजनको दृष्टिसे हम उसे पञ्चसंग्रह न कहकर सप्त-संग्रह या अष्ट-संग्रह जरूर कह सकते हैं । अन्यथा उन्हें चाहिए यह था कि जैसे बन्धक आदि पाँच द्वारोंका स्वतन्त्र निर्माण कर "दाराणि पंच अहवा" रूप प्रतिज्ञाका निर्वाह किया है उसी प्रकार सतक, सित्तरी, संतकम्मपाहुड़, कम्मपयडी और कसायपाहुड़, इन पाँचों ग्रन्थोंके संग्रह या संक्षेपीकरण रूपसे पाँच ही संग्रह स्वतन्त्र बनाने थे और तभी ग्रन्थारम्भकी पहली और दूसरी गाथामें की हुई प्रतिज्ञाका भली-भाँति निहि हो जाता। पर उन्होंने ऐसा न करके ऊपर बतलाये गये क्रमानुसार सात ही प्रकरण या द्वार रूपमें अपने पञ्चसंग्रहकी रचना की । ऐसा उन्होंने क्यों किया और संग्रह-संख्याकी विसंगति क्यों की, यह एक ऐसा प्रश्न है, जो कि ग्रन्थके किसी भी गहरे अभ्यासी और अन्वेषकके हृदयमें उठे विना नहीं रहता
और सम्भवतः यही या इसी प्रकारका प्रश्न स्वयं चन्द्रषिके भी मनमें उठा है और उसका उन्होंने यह लिखकर स्वयंका और शंकालुओंका समाधान किया है कि ग्रन्थकर्ता अपनी रचना किस ढंगसे करे या कौन-सी बात पहले और कौन-सी पीछे कहे इसके लिए वह स्वतन्त्र होता है। स्वयं ग्रन्थकार ग्रन्थारम्भकी तीसरी गाथाको स्वोपज्ञवृत्तिमें शंका उठाते हुए कहते हैं:
"अम्र कश्चिदाह-कोऽयं द्वारोपन्यासे क्रमः ?
यतः कर्तुरधीनत्वात् सर्वासां क्रियाणां" । इत्यादि आश्चर्यकी बात तो यह है कि यदि प्रतिज्ञात पांच द्वारों में किसी द्वारको आगेगीछे को तब तो ग्रन्थाकारकी इच्छाको प्रधानता दी जा सकती थी, पर वैसा न करके ग्रन्थकारने प्रतिज्ञात पाँचोंबारोंमेंसे कोई
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