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________________ १०८ पञ्चसंग्रह प्रत्यय होते हैं, शेष ग्यारह प्रत्यय नहीं होते हैं। देशविरतमें प्रसवध; द्वितीय अप्रत्याख्यानावरणकषायचतुष्क, अपर्याप्तकाल-सम्बन्धी तीनों योग, वैक्रियिककाययोग तथा उपर्युक्त ग्यारह प्रत्यय (मिथ्यात्वपञ्चक, अनन्तानुबन्धिचतुष्क और आहारकद्विक) इस प्रकार बीस प्रत्यय नहीं होते हैं । छठे गुणस्थानोंमें चारों सनोयोग, चारों वचनयोग, औदारिककाययोग और आहारकद्विक ये ग्यारह योग, संज्वलनचतुष्क और नौ नोकषाय इस प्रकार चौबीस प्रत्यय होते हैं । (शेष तेतीस प्रत्यय नहीं होते हैं।) इन चौवीसमेंसे सातवें और आठवें इन दो गुणस्थानोंमें आहारकद्विकके विना शेष बाईस प्रत्यय होते हैं । अनिवृत्तिकरणके सात भागोंमें बन्ध-प्रत्ययोंके भेद इस प्रकार होते हैं-प्रथम भागमें अपूर्वकरणके बाईस प्रत्ययोंमेंसे हास्यादि-षटकके विना सोलह प्रत्यय होते हैं। द्वितीय भागमें नपुंसकवेदके विना पन्द्रह, तृतीय भागमें स्त्रीवेदके विना चौदह, चतुर्थ भागमें पुरुषवेदके विना तेरह, पंचम भागमें संज्वलनक्रोधके विना बारह, षष्ठ भागम सज्वलनमानके विना ग्यारह और सप्तम भागमें संज्वलनमायाके विना बादरलोभ-सहित दश उत्तर प्रत्यय होते हैं । दशवें गुणस्थानमें चारों मनोयोग, चारों वचनयोग, औदारिककाययोग और सूक्ष्मसंज्वलन लोभ ये दश उत्तर प्रत्यय होते हैं । शेष अर्थात् ग्यारहवें और बारहवें गुणस्थानमें सूक्ष्मसंज्वलन लोभके विना शेष नौ नौ प्रत्यय होते हैं । तेरहवें गुणस्थानमें प्रथम और अन्तिम दो-दो मनोयोग और वचनयोग, तथा औदारिकद्विक और कार्मण काययोग ये सात प्रत्यय होते हैं ।।८१-८३॥ अब मार्गणाओंमें बन्ध प्रत्ययोका निरूपण करते हैं 'ओरालिय-आहारदुगुणा हेऊ हवंति सुर-णिरए । आहारय-वेउव्वदुगणा सव्वे वि तिरिएसु ॥४॥ वेउव्वजुयलहीणा मणुए पणवण्ण पच्चया होति । गइचउरएसु एवं सेसासु वि ते मुणेयव्वा ॥८॥ अथ मार्गणास्थानेषु यथासम्भवं प्रत्ययान् गाथासप्तदशकेनाह--['ओरालिय आहार-' इत्यादि ।] सुरगत्यां नारकगत्यां च औदारिकद्विकाऽऽहारकद्विकोनाः अन्ये द्विपञ्चाशत् , एकपञ्चाशत् हेतवः प्रत्ययाः देवगतौ तु नपुंसकवेदं विना, नारकगतौ तु स्त्री-पुंवेदाभ्यां विना ज्ञातव्याः । तिर्यग्गयां आहारकद्धिक-वक्रियिकद्विकोनाः अन्ये त्रिपञ्चाशत् ५३ भवन्ति ॥४॥ मनुष्यगतौ वैक्रियिकयुग्महीनाः अन्ये पञ्चपञ्चाशत् प्रत्ययाः ५५ भवन्ति । गतिषु चतुपु एवम् । शेषासु मार्गणासु एकेन्द्रियादिषु ते वक्ष्यमाणाः प्रत्ययाः ज्ञातव्याः ॥८५॥ गतिमार्गणाकी अपेक्षा नरकगतिमें औदारिकद्विक, आहारकद्विक, स्त्रीवेद और पुरुषवेद इन छहके विना शेष इकावन बन्ध-प्रत्यय होते हैं। देवगतिमें उक्त छहमेंसे स्त्रीवेद और पुरुषवेद निकालकर और नपुंसकवेद मिलाकर पाँचके विना शेष वावन बन्ध-प्रत्यय होते हैं । तिर्यगतिमें यकद्विक और आहारकद्विक इन चारके विना शेष सभी अर्थात् तिरेपन बन्ध-प्रत्यय होते हैं। मनुष्यगतिमें वैक्रियिकद्विकके विता शेष पचपन बन्ध-प्रत्यय होते हैं। इस प्रकार चारों गतियोंमें बन्ध-प्रत्ययोंका निरूपण किया। इसी प्रकारसे शेष मार्गणाओंमें भी उन्हें जान लेना चाहिए ॥८४-८५॥ 1. ४, ३६, तथा 'स्त्रीपुंवेदो' इत्यादि गद्यभागः (पृ० ८७)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001937
Book TitlePanchsangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages872
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size21 MB
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