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________________ एदेसिं च भंगा- ६।२०।४।३।२।१२ ६|२०१४।२।२।२ ६|१५|४|३।२।२।१२ ६।१५। ४।२।२।२।१ अथवा इन्द्रिय एक, काय एक, क्रोधादि कषाय चार, वेद एक, हास्यादि युगल एक, भययुगल और योग एक; ये बारह बन्ध-प्रत्यय होते हैं ॥ १४६ ॥ इनकी अंकसंदृष्टि इस प्रकार है -१+१+४+१+२+२+१ = १२ । शतक ६।६।४।३।२।१२ ६|६|४|२|२| १ एदे अण्णोष्णगुणिदा = ३४५६० एदे अण्णोष्णगुणिदा = १६२० एदे अण्णोष्णगुणिदा = ५१८४० एए अण्णोष्णगुणिदा = २८८० एए अण्णोष्णगुणिन्दा = १०३६८ एए अण्णोष्णगुणिदा = ५७६ Jain Education International एदे सव्वे वि मिलिदे = १०२१४४ एते पराशयो मिलिताः १०११४४ द्वादशप्रत्ययानां सर्वे विकल्पाः उत्तरोत्तर विकल्पा भवन्ति । बारह बन्ध-प्रत्यय-सम्बन्धी उक्त तीनों प्रकारोंके ऊपर बतलाई गई दोनों विवक्षाओंसे भंग इस प्रकार उत्पन्न होते हैं प्रथम प्रकार ६/२०/४/२/२/१ द्वितीय प्रकार {६| २०|४ | ३ |२| १२ इनका परस्पर गुणा करनेपर इनका परस्पर गुणा करनेपर ६| १५|४|३|२२|१२ इनका परस्पर गुणा करनेपर - ६ | १५|४/२/२/२/१ इनका परस्पर गुणा करनेपर | ६|६|४|३|२|१२ इनका परस्पर गुणा करनेपर ६|६|४|२२|१ इनका परस्पर गुणा करनेपर इस प्रकार सासादनगुणस्थान में बारह बन्ध-प्रत्यय-सम्बन्धी भंगों का जोड़ १०२११४ होता है । सासादन सम्यग्दृष्टिके आगे बतलाये जानेवाले तेरह बन्धप्रत्यय-सम्बन्धी भंगोंको निकालने के लिए बीजभूत कूटकी रचना इस प्रकार है ३४५६० भङ्ग होते हैं । १६२० भङ्ग होते हैं । ५१८४० भङ्ग होते हैं । २८८० भङ्ग होते हैं । १०३६८ भङ्ग होते हैं । ५७६ भङ्ग होते हैं । तृतीय प्रकार इंदिय चउरो काया कोहाइचउक्क एयवेदो य । हस्सा दुयं एयं जोगो तेरस हवंति ते हेऊ ॥ १४७॥ १|४|४|१|२|१ एदे मिलिया १३ । का० अन० भ० ४ 9 ० ३ २ For Private Personal Use Only १३५ १ ง १ २ १|४|४|१|२| १ एकीकृता मूलप्रत्ययास्त्रयोदश १३ भवन्ति । एतेषां भंगाः ६।१५ | ४ | ३ | २|२| १२ | वै० म० ६।१५।४।२।२ । एते उत्तरप्रत्ययाः परस्परेण गुणिता २५६२० | १४४० उत्तरोत्तर प्रत्यय-विकल्पाः स्युः ॥ १४७ ॥ अथवा सासादनगुणस्थानमें इन्द्रिय एक, काय चार, क्रोधादि कषाय चार, वेद एक, हास्यादि युगल एक और योग एक, ये तेरह बन्ध-प्रत्यय होते हैं ॥ १४७॥ इनकी अंकसंदृष्टि इस प्रकार है - १+४+४+१+२+१=१३ । इंदिय तिष्णि य काया कोहाइचउक एयवेदो य । साइदुयं एयं भयदुय एयं च जोगो य ॥ १४८ ॥ १।३।४।१।२।१।१ । एदे मिलिया १३ । ||३|४|१२|१|१ एकीकृताः १३ । एतेषां भङ्गाः ६।२०१४/३/२/२।१२ वै० म० ६।२०|४|३| २।२।२।१ परम्परेण गुणिताः ६६१२० । ३८४० ॥१४८॥ www.jainelibrary.org
SR No.001937
Book TitlePanchsangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages872
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size21 MB
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