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पक्षसंग्रह
कोतिनामोदय एव यतस्तत एको भङ्गः । पर्याप्तोदये सति संस्थानषटक-संहननषटक-युग्मत्रयाणां ६।६।२।२।२ परस्परेण गुणिताः २८८ । शुभैः सहापूर्णोदयस्याभावादपूर्णोदये भङ्गः । ॥१४२-१४४॥ उक्तञ्च
असम्प्राप्तमनादेयमयशा हुण्डदुर्भगे। अपूर्णेन सहोदेति पूर्णेन तु सहेतराः ॥७॥
इति सर्वे २८६ । इसी प्रकार छब्बीसप्रकृतिक उदयस्थान जानना चाहिए । विशेष बात यह है कि शरीरपर्याप्तिको ग्रहण करनेवाले जीवके आनुपूर्वीको निकाल करके औदारिकशरीर, औदारिक-अङ्गोपांग,छह संस्थानोंमेंसे कोई एक संस्थान, छह संहननों में से कोई एक संहनन, उपघात और प्रत्येक
रीर इन छह प्रकृतियोंके मिला देने पर छब्बीसप्रकृतिक उदयस्थान होता है, ऐसा जानना चाहिए । यहाँ पर नियमसे ग्यारह कम तीन सौ अर्थात् दोसौ नवासी भङ्ग होते हैं ॥१४२-१४४।।
यहाँ पर्याप्तप्रकृतिके उदयमें छह संस्थान, छह संहनन, तथा शुभ, आदेय और यशःकीर्ति इन तीनों युगलोंके परम्पर गुणा करने पर (६x६x२x२x२८:२८८) दो सौ अठासी भङ्ग होते हैं। तथा अपर्याप्तप्रकृतिके उदयमें हुंडक संस्थान, सृपाटिका संहनन, दुर्भग, अनादेय और अयश-कीर्त्तिका ही उदय होता है, इसलिए एक ही भंग होता है । इस प्रकार २८८+१=२८६ भङ्ग छब्बीसप्रकृतिक उदयस्थानमें होते हैं। अब उसी जीवके अट्ठाईसप्रकृतिक उदयस्थानका निरूपण करते हैं
'एमेवट्ठावीसं सरीरपज्जत्तगे अपज्जत्त । अवणिय पक्खिविदव्वं एक्कयरं दो विहायगई ॥१४॥ परघायं चेव तहा भंगवियप्पा तहा य णायव्या। पंचेव सया णियमा छावत्तरि उत्तरा होति ॥१४६॥
___ भंगा ५७६ । __ एवं पूर्वोक्तं पड़विंशतिकं तत्रापर्याप्तमपनीय प्रशस्ताप्रशस्तविहायोगत्योमध्ये एकतरोदयः परघातं चैतद्वयं पड्विंशतिके प्रक्षेपणीयम् । अष्टाविंशतिकं २८ तत्तु तिर्थग्गतिः १ पञ्चेन्द्रियं १ तैजसकार्मणे २ वर्णचतुष्कं ४ अगुरुलघु सं १ बादरं १ स्थिरास्थिरे २ शुभाशुभे २ निर्माणं १ पर्याप्तं १ सुमगासुभगयोरेकतरं १ यशोऽयशसोरेकतरं १ आदेयानादेययोरेकतरं १ औदारिकशरीरं । औदारिकाङ्गोपाङ्गम् १ पण्णां संस्थानानां मध्ये एकतरं १ षण्णां संहननानां मध्ये एकतरं १ उपघातं १ प्रत्येकशरीरं १ प्रशस्ताप्रशस्तविहायोगत्योर्मध्ये एकतरं १ परघातं । चेत्यष्टाविंशतिकं स्थानं २८ शरीरपर्याप्तिप्राप्ते सति
र हितस्य पञ्चेन्द्रिय-तियग्जीवस्योदयागतं भवति । तस्यान्तमु हूत्तकालः जघन्योत्कृष्टतः । तथा तस्याष्टाविंशतिकस्य भङ्गविकल्पाः षड्सप्तत्युत्तरपञ्चशतसंख्योपेता ज्ञातव्याः ॥१४५-१४६॥
६६।२।२।२२ गुणिता ५७६ । इसी प्रकार अट्ठाईसप्रकृतिक उदयस्थान उसी जीवके शरीरपर्याप्तिके पूर्ण होने पर अपर्याप्तप्रकृतिको निकाल करके दो विहायोगतिमेंसे कोई एक और परघात प्रकृतिके मिलाने पर होता है । तथा यहाँ पर भग-विकल्प पाँच सौ छिहत्तर होते हैं, ऐसा जानना चाहिए ॥१४५-१४६॥
__ छब्बीसप्रकृतिक उदयस्थानमें जो पर्याप्त-सम्बन्धी २८८ भङ्ग बतलाये हैं उन्हें यहाँ पर बढ़े हुए विहायोगति-युगलसे गुणा कर देने पर (२८८४२=) ५७६ भङ्ग हो जाते हैं ।
1.सं. पञ्चसं० ५,१६६-१६७ । १. सं० पञ्चसं० ५,१६६ ।
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