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________________ २३० ।७०॥ पञ्चसंग्रह आसायछिण्णपयडी गराउरहियाऊ मिस्सा दु । तित्थयर-णराऊजुया अजई देवा य बंधति ॥३५५।। अणुदिस-अणुत्तरवासी देवा ता वेव णियमेण । ७१। शे आनतकल्पप्रभृत्युपरिमप्रैवेयकान्तास्तत्रोत्पन्ना देवाः सप्तनवतिं ६७ प्रकृतीबंध्नन्ति । तत्कथम् ? सामान्यतया देवगत्युक्तप्रकृतयः १०४ तिर्यगायुः १ तिर्यग्गति-तिर्यग्गत्यानुपूये द्वे २ एकेन्द्रियं । स्थावरं । आतपः १ उद्योतः १ चेति सप्तभिः प्रकृतिभिरूना इति परायोग्यबन्धप्रकृतीः ते आनत-प्राणताऽऽरणाऽच्युतनववेयकान्ता देवा बध्नन्ति १७ नियमेन । ता एव १७ तीर्थकरत्वोनाः प्रकृतीः षण्णवतिं आनतादिनवग्रेवेयकान्ता मिथ्यादृष्टयो देवा बध्नन्ति १६ । हुण्डकासम्प्राप्त १ मिथ्यात्व १ षण्ढवेदोनास्ता एव ६२ सासादनस्था देवा बध्नन्ति नियमेन । तिर्यगायु १ स्तियग्गुिकं २ उद्योत १ श्चेति प्रकृतिचतुष्क मुक्त्वा परिवज्यं सासादनव्युच्छिन्नप्रकृति २१ मनुष्यायू रहितास्ता एव मिश्रगुणस्थाने देवा बध्नन्ति ७० । ता एव ७० तीर्थकरत्व-मनुष्यायुभ्यां युक्ता ७२ आनतादिनवप्रैवेयकासंयतदेवा बध्नन्ति । नानुदिश-पञ्चानुत्तरवासिनो देवास्ता एवासंयमगुणोक्ताः प्रकृती ७२ बध्नन्ति । आनतादि-नवग्रेवेयकेषु बन्धयोग्या: ६७ । नवानुदिश-पञ्चानुत्तरेषु देवेषु अविरते ७२ ॥३५०१-३५५॥ ___आनतकल्पसे लेकर उपरिम अवेयक तक उनमें उत्पन्न होनेवाले देव ६७ प्रकृतियोंको बाँधते हैं। अर्थात् देवगतिमें बन्धयोग्य जो १०४ प्रकृतियाँ बतलाई गई हैं उनमें से तिर्यगायु, तिर्यग्द्विक, एकेन्द्रियजाति, स्थावर, आतप और उद्योतके विना शेष ६७ प्रकृतियोंका उक्त देव नियमसे बन्ध करते हैं। उक्त कल्पोंके मिथ्यादृष्टि देव तीर्थङ्करके विना ६६ प्रकृतियोंका बन्ध करते हैं। सासादनसम्यग्दृष्टि देव हण्डकसंस्थान, मृपाटिकासंहनन, मिथ्यात्व और नपुंसकवेदके विना ६२ प्रकृतियोंको नियमसे बाँधते हैं। उक्त कल्पोंके मिश्र गुणस्थानवर्ती देव तिर्यगायु, तिर्यद्विक तथा उद्योतको छोड़कर सासादनमें विच्छिन्न होनेवाली शेष प्रकृतियोंके विना तथा मनुष्यायुके विना ७० प्रकृतियोंका बन्ध करते हैं। उन्हीं कल्पोंके असंयतसम्यग्दृष्टि देव तीर्थङ्कर और मनुष्यायु सहित उक्त प्रकृतियोंका अर्थात् ७२ का बन्ध करते हैं। नव अनुदिश और पंच अनुत्तरवासी देव यतः सम्यग्दृष्टि ही होते हैं, अतः वे नियमसे उन्हीं ७२ प्रकृतियोंका बन्ध करते हैं ॥३५०-३५५३॥ (देखो संदृष्टि संख्या २२) अब इन्द्रियमार्गणाको अपेक्षा प्रकृतियोंके बन्धादिका निरूपण करते हैं इगि-विगलिंदियजीवे तिरियपंचिंदिय अपुण्णभंगमिव ॥३५६॥ मिच्छे तेत्तियमेत्तं णउत्तरसयं तु णायव्वं । ।१०। मिच्छवोच्छिण्णेहिं ऊणाओ ताओ आसाया णिरयाऊ ॥३५७।। णेरइयदुयं मोत्तु पंचिंदियम्मि ओघमिव । ।१६। भथेन्द्रियमार्गणायां बन्धयोग्यप्रकृतीर्गाथाद्वयेनाऽऽह-'इगिविगलिंदियजीवे इत्यादि । एकेन्द्रियद्वि-त्रि-चतुरिन्द्रिय-विकलेन्द्रियजीवेषु लब्ध्यपयोप्तकपञ्चेन्द्रियतिर्यग्वत् तीर्थकरत्वाऽऽहारकद्वय-सुरनारकायुवेंक्रियिकषटकबन्धाभावाद् बन्धयोग्यं नवोत्तरशतम् १०६ । गुणस्थाने द्वे । तत्र मिथ्यादृष्टौ नवोत्तरशतमात्रं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001937
Book TitlePanchsangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages872
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size21 MB
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