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________________ शतक २२१ तइकप्पाई जाच दु सहसारंता देवा जा ॥३४८॥ देवगईपयडीओ एकक्खादावथावरूणाओ। १०१। । मिच्छातित्थयरूणा हुंडा संपत्तमिच्छसंदूणा ॥३४६॥ सासणसम्मा देवा ताओ बंधति णियमेण । मि० १००।सा० १६। आसायकछिण्णपयडीणराउरहियार ताउ मिस्सा दु ॥३५०॥ तित्थयर-णराउजुया अजई बंधति देवाओ। मि० अ० १७२। तृतीयकल्पादि यावत्सहस्रारान्ताः सनत्कुमार-माहेन्द्र-ब्रह्म-ब्रह्मोत्तरलान्तव-कापिष्ट-शुक्र-महाशुक्र-शतारसहस्रारजा देवाः याः सामान्यदेवगत्युक्तप्रकृतयः १०४ एकेन्द्रियाऽऽतपस्थावरत्रयोनास्ता एव १०१ बध्नन्ति, [ एतत्रिकस्य ] तद्वन्धाभावात् । तीर्थकरत्वोनाः १०० प्रकृतिः सनत्कुमारादि-सहस्रारान्ता मिथ्यादृष्टिदेवा बन्नन्ति । हुण्डकसंस्थानासम्प्राप्तसृपाटिकासंहननमिथ्याव-षण्ढवेदोनास्ता एव १६ सनत्कुमारादि-सहस्रारान्ता सासादनस्थदेवा बन्नन्ति । सासादनस्य व्युच्छिन्नप्रकृतीः २५ मनुष्यायुरहितास्ता एव ७० प्रकृतीः सनत्कुमारादि-सहस्रारान्ता मिश्रगुणस्थानस्था देवा बध्नन्ति । तीर्थकरत्वमनुष्यायुभ्यां युक्तास्ता एव ७२ सनत्कुमारादि-सहस्रारान्ताः असंयतदेवा बध्नन्ति ॥३४७१-३५०३॥ तृतीय कल्पसे लेकर सहस्त्रारकल्प तकके देव एकेन्द्रियजाति, आतप और स्थावरके विना देवगति-सम्बन्धी शेष १०१ प्रकृतियोंको बाँधते हैं। उक्त कल्पोंके मिथ्यादृष्टिदेव उक्त १०१ मेंसे तीर्थकरके विना १०० प्रकृतियोंका बन्ध करते हैं। इन्हीं कल्पोंके सासादनसम्यग्दृष्टि देव हंडकसंस्थान, सपाटिकासंहनन, मिथ्यात्व और नपुंसकवेदके विना शेष १६ प्रकृतियोंका नियमसे बन्ध करते हैं। उक्त कल्पोंके मिश्रगुणस्थानवर्ती देव सासादनमें विच्छिन्न होनेवाली २५ तथा मनुष्यायुके विना शेष ७० प्रकृतियोंका बन्ध करते हैं। तथा उन्हीं कल्पोंके असंयतसम्यग्दृष्टि देव तीर्थंकरप्रकृति और मनुष्यायुके सहित ७० अर्थात् कुल ७२ प्रकृतियोंका बन्ध करते हैं ॥३४७१-३५०३॥ (देखो संदृष्टिसंख्या २१) आणदकप्पप्पहुई उवरिमगेवज्जयं तु जावं वि ॥३५१॥ तत्थुप्पण्णा देवा सत्ताणउदिं च बंधंति । देवगईपयडीओ तिरियाउ-तिरियजुयल एइंदी ॥३५२॥ थावर-आदाउज्जोऊण बंधंति ते णियमा । मिच्छा तित्थयरूणा हुंडासंपत्तमिच्छसंदणा ॥३५३॥ सासणसम्मा देवा ताओ बंधंति णियमेण । . नि० ६६ सा १२॥ तिरियाऊ तिरियदुयं तह उज्जोवं च मोत्तणं ॥३५४॥ *व-ई Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001937
Book TitlePanchsangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages872
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size21 MB
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